बिहार में जल संकट और उसके समाधान के रास्ते

पुरुषोत्तम शर्मा


ज्ञात आकड़ों के अनुसार बिहार राज्‍य में लगभग 79.46 लाख हेक्‍टेयर भूमि कृषि योग्‍य है जिसमें से केवल 56.03 लाख हेक्‍टेयर भूमि पर ही खेती होती है. यानी आंकड़ों के अनुसार अभी भी बिहार में 23.16 लाख हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि अतिरिक्त पड़ी है. राज्य में विभिन्‍न साधनों द्वारा कुल 43.86 लाख हेक्‍टेयर भूमि पर ही सिंचाई सुविधाएं उपलब्‍ध हैं जिससे लगभग 33.51 लाख हेक्‍टेयर भूमि की ही सिंचाई होती है. यानी इन सिंचाई सुविधाओं का लाभ लक्षित भूमि में से लगभग 13.35 लाख हैक्टेयर जमीन तक नहीं पहुँच पाता है. जबकि 12.44 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि अब तक सिंचाई सुविधाओं से पूरी तरह वंचित है. इन दोनों वंचित श्रेणियों को मिला दें तो बिहार में लगभग 26 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि आज भी सिंचाई सुविधाओं की बाट जोह रही है. बिहार के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान 18.3 प्रतिशत है और राज्य की आबादी का 76 प्रतिशत हिस्सा कृषि पर निर्भर है. राज्य की कुल कृषि भूमि का 21 प्रतिशत हिस्सा 2 प्रतिशत लोगों के हाथ में है. बाक़ी ज्यादातर हिस्सा सीमांत व गरीब किसानों के पास है.


वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संतुलन के गड़बड़ाने का असर बिहार में भी दिखने लगा है. मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार राज्य में पिछले 13 वर्षों  से औसत बारिश 800 मिमी से थोड़ी अधिक हो रही है. जबकि डेढ़ दशक पहले राज्य में 1200 से 1500 मिमी बारिश होती थी. इससे बिहार एक बड़े पानी के संकट के सामने खड़ा है. राज्य के 19 जिलों में हालात ज्यादा गंभीर हो गए हैं. वे जिले जहानाबाद, जमुई, गया, नवादा, अरवल, वैशाली,  समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, कटिहार, पूर्णिया, बेगूसराय, खगड़िया, भोजपुर, सारण, गोपालगंज, शेखपुरा और मुंगेर हैं. इसका मुख्य कारण बारिश की मात्रा में भारी कमी, नहर प्रणाली का क्षतिग्रस्त होना, बोरिंग पद्धति से अधिक सिंचाई का होना, वर्षा जल संचय की योजनाओं के अभाव के कारण बरसाती पानी का ग्राउंड वाटर लेवल तक नहीं पहुंचना है. विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी जगह का भूमिगत जल 70 प्रतिशत तक निकालना ही सुरक्षित माना जाता है. उससे ज्यादा पानी निकालना संकट को निमंत्रण देना है. क्योंकि उस स्थान से जितना पानी निकाला जाता है उससे बहुत कम पानी जमीन के अंदर जा पाता है. आज बिहार में वार्षिक रूप से प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में भी कमी दर्ज हो रही है. यह वर्ष 2001 में 1594 क्यूबिक मीटर था, जो 2011 में घटकर 1273 क्यूबिक मीटर हो गया है. यही हाल रहा और हमने इस संकट से उबरने के रास्तों पर अभी से काम नहीं किया तो वर्ष 2025 में यह उपलब्धता 1006 क्यूबिक मीटर और 2050 तक 635 क्यूबिक मीटर तक गिराने आशंका है.


सन् 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 10,242 सरकारी नलकूप थे. इनमें से 5077 नलकूप ही चालू थे. सरकार पंप चालकों की कमी की वजह बताकर इन्हें निजी हाथों में सौंपेने की बात कर रही थी. यह भविष्य में सिंचाई सुविधाओं के निजीकरण के जरिये अपनी जिम्मेदारी से सरकार के पलायन की ओर बढ़ता कदम और किसानों की लूट का कारण बनेगा. राज्य में सिंचाई का साधन मुख्य रूप से नहरें हैं. कुआँ, नलकूप तथा तालाब अन्य प्रमुख सिंचाई के साधन हैं. ये नहरें मुख्य रूप से भोजपुर, बक्सर, रोहतास, गया, औरंगाबाद, पटना, मुंगेर, सहरसा, मधेपुरा, दरभंगा, सीतामढी, मुजफ्फरपुर तथा चंपारण जिलों में हैं. सिंचाई की दृष्टि से निम्नलिखित नहरें महत्वपूर्ण हैं. (1)सोन नहर में सोन नदी से डिहरी के समीप निकाली गयी नहरों की कुल लंबाई 1600 किमी तथा सिंचित क्षेत्र 5,35,530 हेक्टेयर है. ये नहरें पश्चिम में भोजपुर, बक्सर तथा रोहतास तथा पूर्व में पटना औरंगाबाद, जहानाबाद तथा गया जिले के अधिकांश क्षेत्रों में सिंचाई करती है. (2) त्रिवेणी नहर 377 किमी लंबाई की नहर का नि‍र्माण गंडक नदी पर बाँध बनाकर किया गया है जो पूर्वी तथा पश्चिमी चंपारण के 85,980 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई करती है. (3) गंडक नहर त्रिवेणी बाँध के समीप ही बाल्मिकीनगर से निकाली गयी नहरों से बिहार के चंपारण, छपरा, मुजफ्फरपुर तथा दरभंगा जिलों में सिंचाई होती है. (4)1954 में नेपाल सरकार के साथ हुए समझौते के तहत कोसी नदी पर भीमनगर के समीप बांध बनाकर पश्चिमी कोसी तथा पूर्वी कोसी नहर का निर्माण किया गया है. कोसी नहर प्रणाली से सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया तथा अररिया जिलों के लगभग 9.96 लाख हेक्टेयर भूमि में सिंचाई होती है. (5) कमला नहर दरभंगा जिले के उत्तरी भाग में प्रवाहित कमला नदी से निकाली गयी नहर है. यह प्रमुख रूप से मधुबनी जिले में खेती की सिंचाई करती है. (6) वडुआ जलाशय से निकले गए नहर से भागलपुर तथा मुंगेर के 37532 हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई होती है.


बिहार की ऐतिहासिक सोन नहर प्रणाली को 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन में इस क्षेत्र के किसानों की जुझारू भागीदारी से घबराकर ही अंग्रेजों ने बनाया था. इसी तरह उस विद्रोह के बड़े केंद्र मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी गंग नहर प्रणाली को अंग्रेजों ने बनाया था. आज यह ऐतिहासिक सोन नहर प्रणाली जो बिहार में सबसे लम्बी और सबसे उपजाऊ जमीन की जीवन रेखा है, रख रखाव के अभाव में दम तोड़ रही है. नहरें जगह-जगह टूट रही हैं, उनमें गाद भर रही है, कहीं सड़कों या अन्य विकास कार्यों के नाम पर उन्हें पाट कर उनकी चौडाई को कम किया जा रहा है. यही हाल हमारी अन्य नहर प्रणालियों और बांधों का भी हो गया है. इससे ये योजनाएं अपने लक्षित क्षेत्र तक पानी पहुंचाने में असमर्थ हो गयी हैं. नतीजा यह है कि सरकारी रिकार्ड में दर्ज बिहार के सिंचित क्षेत्र में से 13.35 लाख हैक्टेयर तक नहर प्रणालियों से जुड़ी कृषि भूमि सिंचाई के पानी के अभाव में सूखे का सामना करने को विवस है. आज इन नहरों से जुड़े कई क्षेत्रों में सूख रही फसलों को पानी दिलाने के लिए किसानों को आन्दोलन में उतरने को मजबूर होना पड़ रहा है. पर राज्य सरकार के पास इसके समाधान के लिए ठोस योजनाओं का कोई खाका नहीं दिखता है. राज्य में कम वर्षा, नलकूपों के अंधाधुध प्रयोग, इन नहर प्रणालियों में अंतिम छोर तक पानी के अभाव और राज्य में पहले से मौजूद तालाबों-पोखरों को पाट कर उनके अन्य उपयोग ने बिहार में भूजल स्तर को काफी प्रभावित कर दिया है. कई क्षेत्रों में चापाकल (हैंडपंप) और नलकूपों ने पानी छोड़ना शुरू कर दिया है.


अपने एक तिहाई हिस्से में लगातार सूखे का सामने करने वाले बिहार की दो तिहाई भूमि बाढ़ प्रभावित भी है. मुख्यतः नेपाल से आनी वाली नदियों की बाढ़ राज्य में हर साल काफी तबाही लाती है. राज्य के 28 जिले स्थाई रूप से बाढ़ प्रभावित हैं. लगभग 2.5 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि जल जमाव वाली है. भारत के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का लगभग 17.2 प्रतिशत क्षेत्रफल अकेले बिहार में है. देश में बाढ़ से होने वाली कुल क्षति में से 12 प्रतिशत क्षति बिहार की होती है. इसी तरह देश में हर साल बाढ़ से प्रभावित जनसंख्या का 21 प्रतिशत हिस्सा बिहार का होता है. गंगा नदी राज्य के लगभग बीचों-बीच बहती है. उत्तरी बिहार का समतल मैदान घाघरा, गंडक, बूढी गंडक, बागमती, अधवारा, कमला, कोसी और महानंदा नदियों का प्रवाह स्थल है. वहीं कर्मनाशा, सोन, पुनपुन, किऊल-हरोहर, वडुआ, चंदन तथा चीर नदियों के सात प्रवाह बिहार में गंगा के दक्षिणी मैदान से बहने वाली नदियाँ हैं.















































































































नदी बेसिन



अपवाह क्षेत्र
(वर्ग किमी)



नदी की लंबाई
(किमी)


 

बाढ प्रभावित क्षेत्र
(वर्ग किमी)



गंगा



  19322



      445


 

       12920



कोसी



  11410



     260


 

       10150



बूढी गंडक



    9601



     320


 

         8210



किऊल हरोहर



 17225



       ?


 

         6340



पुनपुन



   9026



     235


 

         6130



महानंदा



   6150



     376


 

         5150



सोन



 15820



     202


 

         3700



बागमती



  6500



     394


 

         4440



कमला बलान



  4488



    120


 

         3700



गंडक



  4188



    260


 

        3350



घाघरा



  2995



     83


 

        2530



चंदन



 4093



   118


 

        1130



वडुआ



 2215



   130


 

        1050



कुल



  ?



     ?


 

       68800



एक तरफ सूखा और दूसरी तरफ बाढ़ की इतनी तबाही झेलने वाले बिहार राज्य में बाढ़ के इस अतिरिक्त पानी के वैज्ञानिक भंडारण की कोई योजना सरकारों के पास नहीं रही है. अगर ऐसा होता तो एक तरफ हम बाढ़ की तबाही को कुछ कम कर सकते थे और दूसरी तरफ बाढ़ के उस पानी के भंडारण से सूखे से निपट सकते थे. सुना है बिहार सरकार “बिहार ग्राउंड वाटर कंजर्वेशन बिल-2019” ला रही है. किसान संगठनों को इस पर नजर रखनी होगी कि सरकार भूमिगत जल स्तर को बढ़ाने के लिए कौन से व्यावहारिक उपाय और दीर्घकालिक योजना इस कानून में ला रही है. बड़े पैमाने पर भूमिगत जल का दोहन करने वाले डिब्बा व बोतल बंद पानी, शराब, फूड प्रोसेसिंग, कागज़, रियल इस्टेट, एकल एयर कंडीशन प्लांट, होटल, रेल आदि द्वारा उपयोग किए गए भूजल की भरपाई का भी इस कानून में प्रावधान हो. अगर ऐसा न हुआ तो इसकी पूरी गाज किसानों पर ही गिरने का खतरा बना रहेगा. प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (सूक्ष्म सिंचाई) में अब किसानों को 50 प्रतिशत की जगह 75 फीसदी अनुदान मिल रहा है. 75 फीसदी अनुदान पर सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली जैसे ड्रिप सिंचाई एवं स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली किसानों को उपलब्ध कराई जा रही है.  पर इसके लिए किसानों को डीबीटी पोर्टल पर पंजीकरण कराने की शर्त लगाई गयी है. इस पोर्टल पर पंजीकृत किसान ही इस योजना का लाभ उठा सकते हैं. किसान संगठनों को इसे आन्दोलन का मुद्दा बनाते हुए ब्लाक स्तर पर कृषि विभाग द्वारा ब्लाक के खेती करने वाले सभी किसानों व बटाईदारों की लिस्ट को इस पोर्टल में दर्ज कराने की मांग उठानी चाहिए.


बिहार के 29 लाख हेक्टेयर नए क्षेत्र में सिंचाई व्यवस्था के लिए नाबार्ड की सहायता से अगले पांच वर्षों के दौरान तीन हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने  हैं. दक्षिण बिहार के सभी 17 जिलों के संपूर्ण क्षेत्र को सिंचित करने की योजना सरकार ने बनाई है. विभाग के आकलन के मुताबिक नई 326 जल छाजन परियोजनाओं के लिए 2487 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी, जबकि पुरानी 123 योजनाओं पर 550 करोड़ की लागत आनी है. प्रत्येक परियोजना का क्षेत्र करीब पांच हजार हेक्टेयर होगा. राज्य के कृषि मंत्री के अनुसार अभी प्रदेश के 14 जिलों में केंद्र के सहयोग से 123 जल छाजन परियोजनाओं पर काम चल रहा है. इन सभी को पांच से सात वर्षों में पूरा किया जाना है. राज्य सरकार के अनुसार दक्षिण बिहार के 17 जिलों में 8.3 लाख हेक्टेयर में सिंचाई के लिए 15 सौ आहर पुनरस्थापित किये जाएंगे, 775 बीयर बांध और स्लुइस गेट भी बनेंगे. इस पर भी राज्य सरकार से जवाब लेना होगा कि अब तक कितनी प्रगति हुई है और क्या कार्य हुआ है. किसानों तक इसका लाभ पहुंचा या नहीं इस पर पैनी नजर रखनी होगी.


केंद्र सरकार ने बिहार के लिए जिन योजनाओं को मंजूर कर उनमें संशाधन जुटाने का भरोषा दिया है उनमें निम्न योजनाएं हैं. 1 पुनपुन बैराज परियोजना- औरंगाबाद जिले में स्थित इस परियोजना के अन्तर्गत 13680 हेक्टेयर क्षेत्र में हैडवर्क्स और नहर प्रणाली निर्माण करने का प्रावधान है. 2 दुर्गावती जलाशय परियोजना-कैमूर और रोहतास जिलों में फैली दुर्गावती जलाशय परियोजना से 9190 हेक्टेयर सूखा प्रभावित क्षेत्र तथा 23277 हेक्टेयर गैर-सूखा प्रभावित क्षेत्र की आवश्यकतायें पूरी होंगी. लघु सिंचाई परियोजनाएँ- लगभग 340.6732 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत वाली 221 लघु सिंचाई परियोजनाओं को एआईबीपी के अन्तर्गत वित्त पोषण के लिए शामिल किया गया है. मरम्मत, पुनरुद्धार एवं नवीनीकरण (आरआरआर) योजना- राज्य सरकार ने दिसम्बर 2014 में 76.0315 करोड़ रुपए लागत के 35 जलाशयों के लिये केन्द्रीय जल आयोग पटना को प्रस्ताव भेजे थे, इनकी समीक्षा की जा रही है. कमांड एरिया विकास तथा जल प्रबन्धन कार्यक्रम- इस कार्यक्रम के अन्तर्गत राज्य सरकार को केन्द्रीय सहायता अनुदान के रूप में दी जाती है. वर्ष 2014-2015 के दौरान बिहार को 38.81527 करोड़ रुपए की केन्द्रीय सहायता प्रदान की गई. बाढ़ प्रबन्धन कार्यक्रम (एफएमपी)- 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बिहार राज्य को एफएमपी के अन्तर्गत 167.96 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई है. इन राशियों का कितना सदुपयोग हो रहा है, किसान संगठनों को इस पर नजर रखनी चाहिए.


नमामि गंगे राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (एनजीआरबीए) ने बिहार में 2155.63 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत वाली 14 परियोजना की स्वीकृति दी है. जिसमें बक्सर, बेगुसराय, मुंगेर, हाजीपुर और पटना जिले में 1912.36 करोड़ रुपए की स्वीकृति वाले 13 सीवेज नेटवर्क एवं शोधन संयंत्र शामिल हैं. साथ ही 1968 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत वाली एसटीपी को रोकने और उसके प्रवाह की दिशा परिवर्तन करने की 26 परियोजनाओं और 200 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत वाले 4 रीवर फ्रंट विकास परियोजनाओं पर काम की बात है. एनडीडब्ल्यूए-निम्नलिखित पाँच इण्टर बेसिन वाटर ट्रांसफर (आईबीडब्ल्यूटी) लिंक बिहार से सम्बन्धित है. (क) मनास-संकोश-तीस्ता-गंगा लिंक, (ख) कोसी-मेची लिंक, (ग) कोसी-घाघरा लिंक, (घ) चुनार-सोन बैराज लिंक , (ङ)  सोन डेम-गंगा की दक्षिणी सहायक नदियाँ. इन सभी पाँच लिंक्स की पूर्व सम्भाव्यता रिपोर्ट तैयार हो गई है. इनकी सम्भाव्यता रिपोर्ट का कार्य प्रगति पर है. बिहार से 9 अन्तरराज्यीय लिंक प्रस्ताव केंद्र को प्राप्त हुए थे, जिसमें से 6 लिंक्स की पूर्व सम्भाव्यता रिपोर्ट तैयार करके बिहार को सूचित कर दिया गया है. एनडीडब्ल्यूए ने बूढ़ी गंडक-नून-बाया-गंगा तथा कोसी-मेची लिंक के दो अन्तरराज्यीय लिंक प्रस्तावों की डीपीआर बनाकर बिहार राज्य को दे दिया गया है. इन सब योजनाओं पर अब तक क्या प्रगति हुई और बिहार के लोगों को इसका क्या फायदा मिला है? इसे जांचा जाना चाहिए.


समस्या के स्थाई निदान के रास्ते


नलकूप के बजाए कुए की प्रणाली -  बिहार के जमुई जिले के इकलौते जैविक ग्राम कैड़िया में 16 कुओं की खुदाई हो रही है. गांव वालों ने ये कुएं सरकार से लड़ कर हासिल किये हैं. सरकार इन्हें दो स्टेट बोरिंग की सुविधा देना चाहती थी, मगर इन्होंने कहा कि हमें कुएं ही चाहिए. बोरिंग से भूमिगत जल का स्तर गिरेगा, इससे कुछ लोगों को तो तात्कालिक लाभ हो जायेगा, शेष लोग वंचित रह जायेंगे. गांव वालों की जिद के आगे बिहार सरकार को झुकना पड़ा और इस गांव में सोलह कुओं की खुदाई की स्वीकृति देनी पड़ी. यह फैसला भी बेहतरीन है. अगर वहां पानी 17 से 22 फीट पर उपलब्ध है, तो जाहिर है कि कुओं के बारे में हमें फिर से सोचने और इसे अपनाने की जरूरत है. अगर जमीन की ढाल उन कुओं की ओर हो तो बरसात में भूजल स्तर को भी बढाने में इन कुओं की बड़ी भूमिका होगी. मध्य प्रदेश के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों में हर किसान के खेत में ऐसे कुओं और खन्तियों का निर्माण हुआ है जिनमें बरसात का पानी लबालब भरता है और फिर इसकी नमी व सिंचाई का काम अप्रैल तक चल जाता है.


बड़े जलाशयों और झीलों का निर्माण- बिहार के हर प्रखंड में राज्य सरकार बड़े जलाशयों और झीलों का निर्माण करे. इन झीलों और जलाशयों को नदी नहर प्रणाली से जोड़ा जाए, ताकि बरसात में बाढ़ का अतिरिक्त पानी नहरों के जरिये उनमें छोड़ा जाए . जल संकट के समय इस पानी का उपयोग हो. इससे भूमिगत जल स्तर को भी बढाने में मदद मिलेगी. इन जलाशयों में मछली पालन का कार्य भी किया जा सकता है. इसके लिए जरूरत पड़ने पर किसानों की जमीन भी लीज पर ली जा सकती है. दिल्ली सरकार ऐसे जलाशयों के लिए 75 हजार रुपए प्रति एकड़ के भाव से किसानों की जमीन लेने का प्रस्ताव तैयार कर रही है.


भूजल उपयोग करने वाले उद्योगों से इसकी भरपाई का कानून बने-  डिब्बा व बोतल बंद पानी, शराब, फूड प्रोसेसिंग, कागज़, रियल इस्टेट, एकल एयर कंडीशन प्लांट, होटल, रेल आदि भूजल का भारी दोहन करने वाले उद्योगों, संस्थानों से इसकी भरपाई का कानून बने और उनसे वसूली जाने वाली इस धनराशि को नए जलाशयों–झीलों के निर्माण व रखरखाव पर खर्च किया जाय.


शहरों के विस्तार में झीलों–जलाशयों और हरित क्षेत्र के निर्माण का कानून बने. शहरों के विस्तार के लिए झीलों, जलाशयों और हरित क्षेत्र की गारंटी का कानून बने और पुराने शहरों में भी वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम की गारंटी का कानून बने.


पुराने जलाशयों का पुनरुद्धार हो- पुराने जलाशयों में बस गयी आबादी का पुनर्वास कर उन्हें फिर से पुनर्जीवित किया जाए. जहां ऐसा संभव न हो उसकी भरपाई के लिए राज्य सरकार अन्यत्र जलाशयों का निर्माण करे.


पुराने बांधों, पुरानी नहर प्रणालियों का पुनरुद्धार पुराने बांधों और पुरानी नहर प्रणालियों का पुनरुद्धार कर पानी अंतिम छोर तक पहुंचाने की गारंटी हो. यह सिंचाई के साथ ही भूजल स्टार को बढाने में मददगार होगा.  


वन क्षेत्र बढे- बिहार में लगभग 6,764.14 वर्ग किमी क्षेत्र में वन फैले हैं जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 7.1 प्रतिशत हैं. यह मानकों से काफी कम है. इस लिए कृषि के लिए अयोग्य पूरी भूमि पर घने वन लगाकर वनों का प्रतिशत बढाया जाए.


आरो से पानी की भारी बर्बादी - शहरी क्षत्रों में आरो सिस्टम के अंधाधुंध प्रचालन ने पीने के पानी को 70 प्रतिशत तक बर्बाद करना शुरू किया है. इसमें बड़े तकनीकी बदलाव लाकर पानी की बर्बादी को 10 प्रतिशत पर लाना होगा. केंद्र सरकार इस तकनीकि के विकास के लिए काम करे. 


(लेखक “अखिल भारतीय किसान महासभा” के राष्ट्रीय सचिव और “विप्लवी किसान संदेश” पत्रिका के सम्पादक हैं.)