भारतीय कृषि के सम्मुख चुनौतियां, भाग-5


भारतीय कृषि के सम्मुख चुनौतियां, भाग-5


पुरुषोत्तम शर्मा


गतांग से आगे...


 


पहाड़ में कृषि की उपेक्षा- जंगली जानवरों व आवारा पशुओं के आतंक से बंजर होती खेती 


खेती में आधारभूत ढाँचे के विकास के लिए सार्वजनिक निवेश न करना, कृषि क्षेत्र के विस्तार पर कानूनी रोक, चकबंदी न होना, पर्वतीय कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और उनकी खरीद की गारंटी न होने के कारण पहाड़ में कृषि की पूर्ण उपेक्षा की गयी. महंगी ढुलाई के नाम पर पर्वतीय किसानों के आम, नाशपाती, रीठा जैसे कई उत्पादों की खरीद बंद हो गई. जंगली जानवरों से खेती की सुरक्षा न होने के कारण पहाड़ के किसान बड़े पैमाने पर खेती करना छोड़ रहे हैं. मैदानों में भी आवारा जानवरों के आतंक से किसानों को अपनी फसलों को बचाना मुश्किल हो रहा है. सिर्फ उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में 2,75,000 तथा पंजाब में 3,00,000 आवारा पशु हैं.


भारत का गोरक्षा कानून-कृषि अर्थव्यवस्था पर एक और हमला


खेती की हमारी कुल आय में 27 प्रतिशत हिस्सा पशुपालन से आता है. भारत में उत्पादित कुल दूध का 70 प्रतिशत उत्पादन माध्यम किसान, गरीब किसान, भूमिहीन और खेत मजदूर करता है. गोरक्षा कानून के जरिए गायों की खरीद बिक्री पर लगी रोक से ग्रामीण ग़रीबों और छोटे मझोले किसानों के सहायक रोजगार दुग्ध उत्पादन पर भी हमला हुआ है. इससे घाटे की खेती से जूझ रहा किसान कर्ज में डूबता गया और किसानों की आत्महत्या भारत में एक आम परिघटना बन गयी. 


भूमिहीनों के लिए आवास भूमि का आवंटन


भूमिहीनों व खेत मजदूरों, जिनकी आबादी ग्रामीण समाज में 45 प्रतिशत है, के लिए आवास की भूमि की व्यवस्था करना एक महत्वपूर्ण मांग है. पर भारत में अभी उन्हें सामंतों और कारपोरेट के लिए जमीनें खाली कराने के उद्येश्य से अब तक बसे स्थानों से भी उजाड़ा जा रहा है. बिहार सरकार का लाखों भूमिहीन-खेत मजदूरों को उनकी बस्तियों से बेदखल करने का ताजा आदेश इसका जीता जागता सबूत है.


इस कृषि संकट के खिलाफ किसानों का एकताबद्ध आन्दोलन


इस कृषि संकट के कारण निरंतर होती किसान आत्महत्याओं और किसान आंदोलनों के चौतरफा दमन के दौर में भारत के किसान संगठन पहली बार देश व्यापी समन्वय बना कर साझा आन्दोलन की दिशा में एकताबद्ध हुए हैं. इसमें प्रमुख है 208 किसान संगठनों की अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति. इसमें वामपंथी किसान संगठनों के साथ ही सुधारवादी और कुलकों, पूंजीवादी फार्मरों के संगठन भी शामिल हैं. कर्ज मुक्ति और कृषि उपज की लागत में 50 प्रतिशत मुनाफ़ा सहित न्यूनतम समर्थन मूल्य इस साझा किसान आन्दोलन के प्रमुख दो एजेंडे हैं.


साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति के खिलाफ किसानों की एकजुटता


गौ रक्षा के नाम पर पूरे देश में सत्ता के संरक्षण में संगठित गुंडा गिरोहों द्वारा गौ पालक मुश्लिम किसानों की भीड़ हत्या के साथ ही, साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति को परवान चढाने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर में साम्प्रदायिक दंगों कराए गए. इस दंगे के बाद टूटी किसानों-ग्रामीण मजदूरों की एकता ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलन को भारी नुकसान पहुंचाया. पर अब वहाँ किसानों ने इस साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति के खिलाफ एकजुट होकर इसे विफल करना शुरू कर दिया है. पिछले साल कैराना में हुए लोकसभा के उपचुनाव को साम्प्रदायिक रंग देने के लिए भाजपा के जिन्ना नारे के खिलाफ किसानों ने गन्ना का नारा बुलंद किया और विपक्ष की मुश्लिम महिला प्रत्याशी को जीता कर भाजपा को करारा जवाब दिया. पिछले साल के अंत में गोकसी के नाम पर फिर बुलंद शहर में उपद्रव के बाद एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर संघ परिवार द्वारा बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगा कराने की साजिशों को किसान-मजदूरों ने अपनी एकता के बल पर विफल कर दिया.


भारत के किसान आंदोलन की दो धाराएं


भारत के किसान आन्दोलन की दो धाराएं आधुनिक पूंजीवादी फार्मर और गरीब व मध्यम किसान आज देश की खेती-किसानी को बचाने के लिए एक मंच पर आ गए हैं. एक दौर था जब भारत के कुलकों और आधुनिक पूंजीवादी फार्मरों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसान नेता शरद जोशी, भूपेन्द्र सिंह मान और बलबीर सिंह राजोवाल ने भारत में खुली अर्थव्यवस्था और डव्ल्यूटीओ में शामिल होने को भारत के किसानों के लिए हितकारी बताया था. हमने तब इस कदम को भारत की खेती किसानी की तबाही और गुलामी का रास्ता बताया था. आज भी पूजीवादी फार्मरों के संगठन किसानों की कर्ज मुक्ति और फसलों की लागत का डेढ़ गुना दाम को ही इस संकट के समाधान के रूप में पेश कर रहे हैं. भारत के वर्तमानकृषि संकट का समाधान सिर्फ कर्ज मुक्ति और लागत का डेढ़ गुना दाम ही नहीं है. यह तो तात्कालिक राहत की मांगें हैं. भारत की खेती-


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किसानी से जुड़े इन वैचारक सवालों का अध्ययन करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आज भी भारत के ग्रामीण समाज की बहुसंख्या सीमांत किसानों, आदिवासियों, बटाईदारों, मछुवारों, भूमिहीनों, खेत मजदूरों और ग्रामीण दस्तकारों के सवालों को वर्तमान संयुक्त किसान आन्दोलन के एजेंडे में लाने के लिए हमें हर स्तर पर जूझना पड़ रहा है.


भारत के वर्तमान कृषि संकट के समाधान का रास्ता


कृषि के साथ ग्रामीण समाज के लोकतंत्रीकरण का सवाल हमारे लिए महत्वपूर्ण है. क्योंकि भारत में ग्रामीण समाज में अब भी बची सामंती बेड़ियाँ बड़ी पूंजी के साथ गठजोड़ में बंधी हैं. खेती के कारपोरेटीकरण की राह को बदल कर छोटी व मझोली खेती को लाभप्रद बनाना होगा. अब तक किसानों पर लदे हर तरह के (बैंक, सहकारी समिति,साहूकारी) कर्ज से मुक्ति और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप फसलों की सम्पूर्ण लागत में 50 प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर समर्थन मूल्य देना होगा. बाजार में किसान के मोलभाव की ताकत को बढाने के लिए इस मूल्य पर हर कृषि


उत्पाद की सरकारी खरीद सुनिश्चित करने के लिए देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत तथा और भी विस्तारित करना होगा. खाद्य सुरक्षा की गारंटी के लिए कृषि भूमि के सरंक्षण का कानून बनाना होगा. बटाईदार किसानों को किसान का दर्जा देने के लिए कानून लाना होगा. कृषि में लागत कम करने के लिए बीज, कीटनाशक, उर्बरक और कृषि यंत्रों की कीमतों के जरिये किसानों की भारी कारपोरेट लूट को नियंत्रित करना होगा. वर्तमान कृषि संकट से बाहर निकलने के लिए देश की खेती किसानी की तबाही के लिए जिम्मेदार WTO की शर्तों से बाहर निकलना होगा, अपने परम्परागत बीजों को खोजने, संजोने और विकसित करने तथा अपनी परम्परागत जैविक खेती को पुनर्जीवित व परिस्कृत करने पर अपने वैज्ञानिकों व शोध संस्थानों को लगाना होगा. ताकि हम साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़जाल से अपनी खेती व किसानी को बाहर निकाल सकें. कृषि जिंसों के आयात पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध लगाकर अपने किसानों को संरक्षण देना और कृषि उत्पादों को वायदा कारोबार से बाहर निकालना होगा.