ईको सिस्टम की रक्षा में किसानों का परम्परागत ज्ञान ज्यादा समृद्ध- गतांक से आगे

ईको सिस्टम की रक्षा में किसानों का परम्परागत ज्ञान ज्यादा समृद्ध-


गतांक से जारी


पुरुषोत्तम शर्मा


आगे बढ़ने से पहले पहाड़ पर मानव जीवन को समझना जरूरी है. हजारों वर्षों से कृषि – पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी पर आधारित पहाड़ की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार वन रहे हैं. इस लिए पहाड़ के लोगों ने हजारों वर्षों से न सिर्फ वनों को लगाया और उनकी रक्षा की बल्कि इको सिस्टम को समझते हुए अपने रहन – सहन और आजीविका के साधनों का विकास किया. पहाड़ के गांवों की बनावट को अगर देखें तो हर गांव में ऊपर जंगल, जंगल के नीचे आबादी , आबादी के नीचे खेती, खेती के नीचे नदी. यानी किसी भी गांव की आबादी नदी से सटी नहीं है क्यूंकि अपने अनुभव से उन्होंने नदी तट को आबादी के लिए सुरक्षित नहीं माना था.


पहाड़ के गाँवों में कहावत है कि नदी और खेत की मेंड़ बारह वर्ष में अपनी पुरानी जगह पर आ जाती है. नदी को लेकर पहाड़ के ग्रामीणों के इस परम्परागत ज्ञान को वर्तमान आपदा ने पूरी तरह सही साबित कर दिखाया है. यही नहीं पहाड़ के लोगों ने अपने पानी के स्रोतों को बचाए रखने और चोटियों पर अपने पालतू व जंगली जानवरों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए चाल - खाल (छोटे – छोटे तालाब) बनाने की एक पद्धत्ति विकसित की जिसमें बरसात का पानी जमा होता था और वह भूगर्भीय जल को बढ़ाने का भी काम करता था. आज भी हल बैल पर निर्भर पहाड़ की खेती वनों पर निर्भर है जहाँ पशुपालन से लेकर कृषि यंत्रों तक निर्भरता वनों पर रहती है. चूँकि वन पहाड़ के लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं. इसी लिए एकमात्र उत्तराखंड के पहाड़ ही हैं जहाँ सरकारी वनों से परम्परागत अधिकार छिन जाने के बाद कुल लगभग सोलह हजार राजस्व गाँवों वाले राज्य की जनता ने बारह हजार से ज्यादा गाँवों में वन पंचायतें गठित कर सरकारी वनों से इतर अपने खुद के वनों का निर्माण किया.


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