कोरोना काल में पहाड़ के लोगों व प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के लिए

कोरोना काल में पहाड़ के लोगों व प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के लिए


पुरुषोत्तम शर्मा


मुझे लगता है पहाड़ के लोगों व प्रगतिशील कहे जाने वाले बुद्धिजीवियों को कोरोना संकट के समय पहाड़ लौटे अपने लोगों को लेकर उपजे अपने चिंतन पर पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है। प्रवासी मजदूरों को जो पीड़ा पिछले दो माह में घर पहुंचने में भुगतनी पड़ी है, उससे ज्यादा दर्द का अनुभव उन्हें अपनों के तिरष्कार की सोच से रूबरू होकर हो रहा है। पहाड़ के प्रगतिशील बुद्धिजीवी माने जाने वाले कई लोगों की पोस्टों को पढ़ने से मुझे तो बड़ी तकलीफ हो रही है।


ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी लोग यह फर्क करना भी भूल चुके हैं, कि पहाड़ के घरों और खेतों के बंजर होने में इन मजबूर प्रवासियों का कोई हाथ नहीं है। आज जो गांव लौट रहे हैं उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे तीन चार माह बेरोजगारी की स्थिति को शहरों में झेल सकें। लेकिन अभी जून माह से वह तबका भी गांव लौटना शुरू करेगा, जो बेरोजगारी के कारण अपनी छोटी जमा पूंजी के बल पर शहरों में एक साल टिक सकता है, पर हमारी अर्थव्यवस्था जहां पहुंच चुकी है वहां एक साल बाद भी कोई उम्मीद की किरण नहीं दिखती है।


इस लिए यह समझना जरूरी है, अगर अपनी पूरी आबादी को पहाड़ की खेती और उसके सहायक रोजगार गुजारे लायक भी देने की स्थिति में होते, तो आज भूखा वापस लौट रहा यह तबका भूख मिटाने शहरों को कतई नहीं जाता। इनके पहाड़ छोड़ने का कारण भी अब तक की सरकारों की पहाड़ विरोधी जन विरोधी नीतियां रही हैं। और आज इनके फिर वापस लौटने का कारण भी हमारी सरकारों की मजदूर विरोधी कारपोरेट परास्त नीतियां हैं। इस बात को समझे बिना निकाले गए निष्कर्ष हमेशा गलत नतीजे देंगे। इन्हीं गलत निष्कर्षों की सजा आज तक पहाड़ भुगतने को मजबूर है।


अपनी भूख मिटाने शहरों को गए इन लाखों लोगों को आज भूखे - असहाय मजबूरन अपने गांव लौटना पड़ा रहा है। जबकि वे जानते हैं कि उनकी भूख को पहाड़ की खेती भी अब मिटाने की स्थिति में नहीं है। आज पहाड़ में औसतन 8 - 10 नाली (आधा एकड़ से कम) जमीन ही प्रति परिवार के पास बची है। इतनी कम जमीन में कोई कितनी भी मेहनत करे एक छोटे परिवार का गुजारा संभव ही नहीं है। ऊपर से जंगली जानवरों का आतंक और सरकार की किसान विरोधी नीतियों ने किसानों को खेती छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।


कोरोना संकट से बेरोजगार हुए लोगों को रूस में पुतिन सरकार गुजारे के लिए खेती की जमीन बांट रही है। हमारे देश में मोदी और त्रिवेन्द्र की सरकारें किसानों की भी जमीन लूटने के कानून ला रही हैं।


मेरे खेतों में आम की फसल है। पर पिछले 10 वर्षों से आम बिकना बंद है। मेरे मित्र आनंद नेगी के पास आम और रीठा है , पर पिछले 10 वर्षों से रीठे की बिक्री भी बंद है।पहाड़ का एक छोटा किसान अपनी उपज को लेकर रामनगर, हल्द्वानी, कोटद्वार, दिल्ली की मंडी नहीं जा सकता है। उसकी ढुलाई पर ही प्राप्त कीमत का दोगुना खर्च हो जाएगा। ऐसे में कुछ अपवादों को छोड़कर सरकारों ने पहाड़ में खेती को दुष्कर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कारण साफ है कि पहाड़ की जमीनों को बाहरी पूंजीपतियों को लुटाना है। इसी लिए भू कानून और कृषि नीति को ऐसे ही सांचे में ढाला गया है।


फिर भी ये मजबूर लोग पहाड़ लौट रहे हैं। कारण यह उनका पैतृक घर है। यहां उनकी अपनी जड़ें हैं, उनके अपने लोग हैं, जिनके बीच वो भूखा रहकर भी खुद को सुरक्षित महशूश करेगा। जबकि ऐसा सुरक्षित वह बेरोजगारी की स्थिति में शहरों में अपने को नहीं पाता है। पर आज जिस तरह से इन प्रवासी मजदूरों को अपने ही पैतृक गांव में यमराज की तरह देखा जा रहा है, यह एक बहुत ही खरनाक प्रबृत्ति है।


अभी एक खबर देघाट से आई। जहां 20 वर्षों से रह रही एक मजदूर महिला गंगा को सिर्फ इस लिए उसके किराए के मकान में नहीं घुसने दिया गया और उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, क्योंकि वह अपनी बीमार बेटी का इलाज कराने दिल्ली गई थी। अंततः उसे मासी में अपनी बेटी और दामाद के पास जाना पड़ा।


गढ़वाल के एक गांव का वीडियो घूम रहा है, जिसमें तीन महिला कंडाली (बिच्छू घास) हाथ में लिए गर्व से अपने गांव के प्रवासियों को गांव न आने के लिए धमका रही हैं। ऐसी खबरें भी मिल रही हैं कि अपना घर तो छोड़ ही दीजिये, गांव के बाहर अपने खेतों के नजदीक इन प्रवासियों को टेंट या त्रिपाल में रहने से भी यह कह कर रोक जा रहा है कि ये हमारे खेत में पेशाब करेंगे तो हमें कोरोना हो जाएगा।


कोरोना ने पहाड़ी समाज में हजारों वर्षों से जड़ जमाए छुआ-छूत और मनुष्यों से घृणा करने की सवर्ण सामंती मानसिकता को और भी विस्तार दे दिया है। अब हमारा समाज जाति से घृणा व नफरत करते-करते एक ही पिता की औलाद से भी घृणा व नफरत करने की तरफ बढ़ गया है। जबकि जरूरत कोरोना संक्रमितों को भी समाज की सहानुभूति के संबल की है।


आज उसी पहाड़ में जहां किसी एक व्यक्ति के बीमार होने की खबर सुनते ही आस पास के दसियों गावों के लोगों और सभी रिस्तेदारों द्वारा उनका हालचाल जानने और बीमारी से लड़ने में उनकी आत्मशक्ति को मजबूत करने में सहयोग की परम्परा रही है, आज सिर्फ बीमारी की आसंका में ही अपनों का तिरिस्कार कर रहा है।


यह समय सरकारों की जनविरोधी कारपोरेट परस्त नीतियों के खिलाफ और विकास की जनपक्षीय नीतियों के लिए कोई बड़ी जनगोलबन्दी की दिशा देने का है न कि इन पीड़ित बेरोजगार मजदूरों का तिरिस्कार करने का। हमारे समाज और उसके बुद्धिजीवियों का यह व्यवहार जाने-अनजाने वर्तमान जन विरोधी सत्ता का बचाव कर रहा है।


कोरोना संकट के दौर में जरूरत तो पहाड़ की ध्वस्त स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ व विस्तारित करने, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को "हर जरूरत मंद के लिए जरूरत के अनुसार" की तर्ज पर पुनर्गठित करने तथा पहाड़ के लिए रोजगार परक कृषि नीति के लिए बड़े संघर्ष का रास्ता बनाने की है।


पर हमारे बुद्धिजीवी भी सत्ता के षड़यंत्रों के आसान शिकार बन गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बीमारी से बचाव के लिए शारीरिक दूरी अपनाने की सलाह दी थी। पर हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने उसे बदल कर अपनी राजनीति के माफिक ढाला और सामाजिक दूरी का नारा दे दिया। ऐसा करके मोदी सरकार ने व्यक्ति को समाज से अलगाव में डाल दिया और देश के संशाधनों को पूंजीपतियों के लिए सुलभ कर मेहनतकशों को उससे वंचित कर दिया। जबकि शारीरिक दूरी और सामाजिक एकता के बल पर और संशाधनों का सार्वजनिक स्वामित्व के जरिये ही इस बीमारी से लड़ा जा सकता है।


पर हमेशा धार्मिक, विभाजन की राजनीति को अपना हथियार बनाने वाले आरएसएस-भाजपा ने कोरोना के बहाने व्यक्ति की व्यक्ति से घृणा के स्तर तक इस विभाजन की राजनीति को पहुंचा दिया है। ताकि उनकी जन विरोधी, देश बेचू, कारपोरेट परस्त नीतियों के खिलाफ जन गोलबंदी के सभी रास्ते बंद हो जाएं। वे अपने मनशूबों को कामयाब बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं। क्योंकि आज प्रगतिशील बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग भी अनजाने ही उनके मनशूबों की पूर्ति के लिए काम करने लगे हैं।


याद रहे कोरोना संकट और आर्थिक संकट के आगे विश्व पूजीवाद की संस्थाओं ने घुटने टेक दिए हैं। जो जितने समृद्ध पूँजीवादी देश हैं वे उतने गहरे संकट में हैं। यह संकट इतना गहरा है कि भारत और दुनिया इससे जल्दी उबर नहीं पाएंगे। पर जहां कहीं भी समाजवादी व्यवस्था या सार्वजनिक संस्थाएं मजबूत हैं वहां कोरोना के खिलाफ लड़ाई ज्यादा सफल है। इस संकट का मुकाबला शारीरिक दूरी और सामाजिक एकता के बल पर ही किया जा सकता है।


सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, हर नागरिक के लिए रहने लायक मकान और गुजारे लायक न्यूनतम आमदनी की गारंटी, ये चार प्रमुख एजेंडे हैं जिन्हें कोरोना संकट ने विश्व के सामने ला दिया है। यह समाजवाद में ही सम्भव है। इस लिए कोरोना के साथ ही एक नई राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए भी चौतरफा पहल लेने की जरूरत है।