कृषि के उत्पादन, भंडारण व खुदरा व्यापार पर कॉरपोरेट व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर
पुरुषोत्तम शर्मा
(किसानों का दिल्ली पड़ाव पुस्तिका के अंश, गतांक से आगे)
आज कोरोना संकट के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह चरमरायी हुई हैं. उद्योग, सेवा क्षेत्र, पर्यटन, ऑटोमोबाइल, निर्माण, व्यापार, ट्रांसपोर्ट जैसे जीडीपी को गति देने वाले प्रमुख क्षेत्र पूरी दुनिया में बुरी तरह हांफ रहे हैं. भारत में कोराना काल से पूर्व ही मोदी सरकार की क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों के कारण जीडीपी गोते खाने लगी थी. ऐसे में देश में “सरकारी-सार्वजनिक संस्थान सब कुछ बिकाऊ है” का नारा देने के बाद भी मोदी सरकार को कोई खरीदार नहीं मिल रहा है.
देश की अर्थव्यवस्था की इस निराशाजनक गति को देख कर कोरोना काल में ही भारत के कॉरपोरेट घराने भारत में कोई निवेश करने के बजाय अमेरिका में डेढ़ लाख करोड़ रुपए का निवेश कर आए. बेरोजगारी बढ़ रही है. आम लोगों की क्रय शक्ति लगातार घट रही है. इससे दुनिया भर में उपभोक्ता उत्पादों की मांग में भारी कमी आ गई है. सिर्फ एक क्षेत्र है खाद्य वस्तुएं, जिनकी मांग मनुष्य के जीवित रहने के लिए हर स्थिति में बनी रहेगी. इसलिए दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और देशी कारपोरेट कम्पनियों की नजर अब खेती की जमीन और खाद्य पदार्थों के व्यवसाय पर गढ़ी है.
भारत के कृषि व्यवसाय में नेसले, कैडबरी, हिन्दुस्तान लीवर, गोदरेज फूड्स एण्ड बेवरेजेस, डाबर, आई.टी.सी., ब्रिटेनिया जैसी बड़ी कंपनियां पहले ही पैर जमाई हुई हैं. अब करगिल, रिलाइंस, पतंजलि जैसी कई बहुराष्ट्रीय व कारपोरेट कम्पनियां इस क्षेत्र में उतर चुकी हैं. हिमांचल में वॉलमार्ट, बिग बास्केट, अदानी, रिलायंस फ्रेश और सफल जैसी बड़ी कंपनियों के अलावा अन्य कंपनियां भी बागवानों से सीधे सेब खरीद रही हैं. ये कम्पनियां सेब के रंग, आकार और गुणवत्ता के हिसाब से छांट कर ही बागवानों से क्रेटों में सेब खरीदती हैं.
इसी तरह ज्यादातर कम्पनियों के ही नियंत्रण में चलने वाले भारत में कृषि आधारित उद्योगों की भी तीन श्रेणियां हैं - (1) फल एवं सब्जी प्रसंस्करण इकाइयों, डेयरी संयंत्रों, चावल मिलों, दाल मिलों आदि को शामिल करने वाली कृषि-प्रसंस्करण इकाइयां; (2) चीनी, डेयरी, बेकरी, कपड़ा, जूट इकाइयों आदि को शामिल करने वाली कृषि निर्माण इकाइयां; (3) कृषि, कृषि औजार, बीज उद्योग, सिंचाई उपकरण, उर्वरक, कीटनाशक आदि के मशीनीकरण को शामिल करने वाली कृषि-इनपुट निर्माण इकाईयां. इसके एक बड़े हिस्से पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार बढ़ता जा रहा है.
भारत का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग देश के कुल खाद्य बाजार का 32% है. यह भारत के कुल निर्यात में 13% और कुल औद्योगिक निवेश में 6% हिस्सा रखता है. भारत के खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में फल और सब्जियां, मसाले, मांस और पोल्ट्री, दूध और दुग्ध उत्पाद, मादक और गैर मादक पेय पदार्थ, मत्स्य पालन, अनाज प्रसंस्करण और मिष्ठान भंडार, चॉकलेट तथा कोकोआ उत्पाद, सोया आधारित उत्पाद, मिनरल वाटर और उच्च प्रोटीन युक्त आहार जैसे अन्य उपभोक्ता उत्पाद समूह शामिल हैं.
पिछले वर्ष तक भारत का खाद्य बाजार लगभग 10.1 लाख करोड़ रुपये का था. जिसमें खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का हिस्सा 53% अर्थात 5.3 लाख करोड़ रुपये का है. अब भारत के गांवों के हाट-बाजारों पर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़ी कारपोरेट कम्पनियों की नजर है. बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़ी कारपोरेट कम्पनियां ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में जगह-जगह अपने मॅाल खोल रही हैं. वे अपने विभिन्न उत्पाद-ब्राण्डों को दूरदराज के गांवों व चौके-चूल्हे तक पहुंचाने का सपना देख रहे हैं.
ई-चौपालों, चौपाल सागरों, एग्रीमार्टो, किसान हरियाली बाजारों आदि का बस एक ही लक्ष्य है-फसलों की पैदावार/कृषि जिंसों के कारोबार पर कॉरपोरेट का शिंकजा और कृषि उपज मण्डियों का कॉरपोरेटीकरण.
मोदी सरकार भारतीय कृषि को अमेरिकी कृषि के रास्ते पर ले जाना चाहती है. अमेरिका की कुल कृषि उपज का 60 प्रतिशत हिस्सा मात्र 35 हजार बड़े कृषि फ़ार्म पैदा करते हैं. जबकि भारत की 85 प्रतिशत खेती छोटे व सीमांत किसानों पर निर्भर है. भारत का 70 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन भी भूमिहीन, खेत मजदूर, गरीब व मध्यम किसान करता है. भारत में खेती व्यवसाय नहीं, बल्कि 85 प्रतिशत किसान परिवारों को पालने का एक साधन है. मोदी सरकार कॉरपोरेट के दबाव में अन्न को भी अब आवश्यक वस्तु से बाहर कर उपभोक्ता माल में बदलने की तरफ कदम बढ़ा चुकी है.
इसलिए भारत जैसे कृषि प्रधान और विशाल आबादी के देश की खेती और खाद्य बाजार पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़े कारपोरेट घराने अपना एकाधिकार जमाना चाहते हैं. जून 2018 में जागरण में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी करगिल ने भारत से गेहूँ, मक्का, तेल जैसे जिंसों के 10 लाख टन की खरीददारी की. करगिल वर्ष 2018 में ही कर्नाटक के दावणगेरे में डेढ़ करोड़ डालर खर्च कर मक्का की फसल के भंडारण के लिए अन्नागार स्थापित कर रही थी. भारत के पशु आहार व मत्स्य आहार क्षेत्र में भी करगिल का दखल लगातार बढ़ रहा है.
दुनिया के स्तर पर देखें तो चोटी की 10 वैश्विक बीज कम्पनियां दुनियां के एक-तिहाई से ज्यादा बीज कारोबार पर काबिज है. वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 30 अरब डॉलर का धन्धा कर रही है. भारत के 75 प्रतिशत बीज बाजार पर भी मोसोंटो और करगिल जैसी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा हो चुका है जो शिमला मिर्च, गोभी, टमाटर के बीज को अब 80 हजार से डेढ़ लाख रुपए किलो तक में किसानों को बेच रही हैं. चोटी की 10 कीटनाशक रसायन निर्माता बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दुनियां के 90 प्रतिशत कीटनाशक रसायन कारोबार पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 35 अरब डॉलर का कारोबार कर रहीं है.
चोटी की 10 बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खाद्य पदार्थों की कुल बिक्री के 52 प्रतिशत पर कब्जा जमाये हुए हैं. चोटी की 10 फर्में दुनियां के संगठित पशुपालन उद्योग और उससे जुड़े हुए समस्त कारोबार के 65 प्रतिशत पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्र में 25 अरब डॉलर का धन्धा कर रही हैं. भारत जैसे कृषि प्रधान और बड़ी आबादी वाले देश की खेती, अन्न भंडारण और अन्न बाजार को अपने नियंत्रण में लेने के लिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कॉरपोरेट कम्पनियों में होड़ मची है. यही वह क्षेत्र है जहां इस वैश्विक संकट के दौर में अभी भी मांग है और पूंजी निवेश की संभावनाएं बची हुई हैं. इसलिए हर तरफ से निराश मोदी सरकार किसी भी हाल में यहाँ कॉरपोरेट व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की राह आसान करना चाहती है. पर देश का किसान ऐसा हरगिज नहीं होने देगा. किसानों का यह संघर्ष मोदी सरकार की बिदाई की इबारत लिखेगा.