टीकरी बॉर्डर बना दो ऐतिहासिक किसान आंदोलनों के मिलन का गवाह
पुरुषोत्तम शर्मा
(किशनगढ़ में मुजरा आंदोलन के शहीदों की स्मृति में बना स्मारक) 19 मार्च 2021 को दिल्ली का टीकरी बॉर्डर आठ दशक बाद दो ऐतिहासिक किसान आंदोलनों के मिलन का गवाह बना. इस क्षण को अपनी आंखों में कैद करना जैसे खुद दो इतिहासों को जीने जैसा अहसास दे गया. दुनियां में ऐसे विरले ही लोग होते हैं जो दो ऐतिहासिक आंदोलनों में अपनी भूमिका निभाए हों. ऐसा गौरव भाकपा (माले) नेता और पंजाब किसान यूनियन के वरिष्ठ नेता 93 वर्षीय कृपाल सिंह बीर को प्राप्त है. 1942 के बाद 12 वर्ष की उम्र से ही पंजाब में चल रहे ऐतिहासिक पेप्सू मुजारा आंदोलन के योद्धा रहे कृपाल सिंह बीर वर्तमान किसान आंदोलन में भी सक्रिय हैं. उम्र और शारीरिक कमजोरी उनके हौसले को नहीं डिगा पा रही है. वे लाठी लिये पंजाब में चल रहे मोर्चों से लेकर दिल्ली के मोर्चे तक लगातार सक्रिय हैं. उन्हें भरोषा है कि देश का किसान इस लड़ाई को जरूर जीतेगा. टिकरी के मंच पर मुजारा आन्दोलन के इस जीवित योद्धा और शहीद परिवारों के सदस्यों को देख सभा मैं मौजूद हजारों लोगों की आँखें छलक आई. संयुक्त किसान मोर्चे की ओर से कामरेड कृपाल सिंह बीर और शहीद परिवारों के सदस्यों को मंच पर सम्मानित किया किया.
(मुजारा आंदोलन के जीवित योद्धा कामरेड कृपाल सिंह बीर) पंजाब के मुजारा आन्दोलन के बारे में बाक़ी देश या तो जानता ही नहीं है या बहुत ही कम जानता है. मैं 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कामरेड रुल्दूसिंह मानसा के साथ किसानों के बीच चुनाव प्रचार के लिए मानसा जिले के किशनगढ़ गाँव भी गया था. वहाँ मैंने इस आन्दोलन की यादों को ज़िंदा रखे एक स्मारक को देखा तो मेरे अन्दर इस आन्दोलन को जानने की जिज्ञाशा जागी. मुझे लगा अभी भी अपने पुरुखों के क्रांतिकारी इतिहास के कई पन्नों से हममें से ज्यादातर लोग अनभिग्य हैं. तेलंगाना आन्दोलन के समय उसी तरह का आन्दोलन पंजाब की धरती पर मुजारों (गरीब व भूमिहीन किसान) की संगठित ताकत के बल पर चल रहा था. पंजाब का मुजारा आन्दोलन पटियाला राज के अन्दर अंग्रेजों से देश की आजादी और बड़े जागीरदारों के खिलाफ उन गरीब व भूमिहीन किसानों का संगठित प्रतिरोध आन्दोलन था, जो उनकी जमीनों पर कास्त करते थे.
(मुजारा आंदोलन के शहीद) मानसा जिले के किशन गढ़ में आज भी मुजारा आन्दोलन और उसके शहीदों की याद में एक भव्य स्मारक खड़ा है. उस स्मारक की ऊंची लाल लाट के ऊपर मुजारों के प्रिय लाल झंडे को बनाया गया है, जिस पर कम्युनिस्टों का निशान हसिया हथोड़ा बना है. किशनगढ़ मुजारा आन्दोलन का सबसे बड़ा गढ़ था. इस पर पटियाला राज की सेना ने चारों और से घेर कर तोपों से हमला किया था. राजा की सेना का मुकाबला करने को पांच हजार किसानों के साथ उनके सशस्त्र जत्थे डेट थे. इस लड़ाई में इस गाँव के किसान योद्धा कुंडा सिंह और राम सिंह बाग़ी शहीद हुए थे. पूरे मालवा क्षेत्र में मुजारा आन्दोलन में संघर्षरत किसानों की हिफाजत के लिए लगभग 1100 किसान गुरिल्ले विभिन्न जत्थों में संगठित किए गए थे.
(किशनगढ़ के जागीरदार की कोठी जिस पर मुजारों ने लाल झंडा टांग दिया था) पंजाब के मुजारा आन्दोलन को देश के क्रांतिकारी किसान आंदोलनों की सूची में वह स्थान अब भी नहीं मिला है जिसका वह हकदार था. मुजारा आन्दोलन की पृष्ठिभूमि जानने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा. 1709 में सिख योद्धा बाबा बंदा बहादुर सिंह ने पंजाब में मुगल युग की जमींदारी व्यवस्था को खत्म कर दिया था. गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद बंदा बहादुर सिंह ने 1708 से 1715 के बीच मुगल साम्राज्य के खिलाफ सिख किसानों को गोलबंद कर विद्रोह का नेतृत्व किया और जमीनों का मालिकाना किसानों को दिलाया था. हालांकि 1793 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत के कमांडर-इन-चीफ चार्ल्स कॉर्नवॉलिस ने “स्थायी निपटान अधिनियम,1793” के तहत जमींदारी प्रथा को पंजाब में फिर से चालू कर दिया.
(टीकरी बॉर्डर पर 19 मार्च 2021 को बनाई गई शहीद बेदी) इस प्रथा के तहत दो तरह के काश्तकार होते थे. एक दखलकारी कास्तकार होते थे और दूसरे मुजारस. दखलकारी कास्तकार से बिस्वेदार तय मात्रा में राजस्व वसूलता था पर उसे जमीन से बेदखल नहीं कर सकता था. लेकिन मुजारस को जमीन से कभी भी बेदखल किया जा सकता था. कास्तकारों की ये दोनों श्रेणियां खेती करती और जमींदारों/बिस्वादारों को उनका तय हिस्सा देते. बिस्वादार भू-राजस्व की एक निश्चित राशि अंग्रेजों को देने के बाद फसल का एक हिस्सा रख लेते. राजाओं/जागीदारों की पकड़ को मजबूत करने के लिए इन नियमों में बदलाव होते गए और ज्यादा से ज्यादा दखलकारी किसानों को मुजारस की श्रेणी में डाला जाने लगा.
(टीकरी बार्डर पर सम्मानित किए गए कृपाल सिंह बीर) मुजारिशों को उनकी जमीनों से बेदखल करने, जमीन का भारी राजस्व वसूसले के खिलाफ इसी पंजाब की धरती पर किसानों का ऐतिहासिक “पगड़ी संभाल जट्टा´ आन्दोलन हुआ. 23 फरवरी 1881 को पंजाब के खटकड़ कलां में जन्मे अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. 3 मार्च 1907 को लायलपुर (अब पाकिस्तान) में एक रैली हुई. इसी में एक व्यक्ति ने पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओए...गाना गाया. वो गाना फेमस हो गया. इस तरह वहां से जो किसान आंदोलन शुरू हुआ. उसका नाम ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ पड़ गया. किसान इस आंदोलन से जुड़ते गए. अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे. आंदोलन और बड़ा न हो जाए इसके लिए अंग्रेजों ने अजीत सिंह को 40 साल के लिए देश निकाला दे दिया. इसके बाद वो जर्मनी, इटली, अफगानिस्तान आदि में गए और किसानों व देश को आजाद करवाने की आवाज बुलंद रखी.
(टीकरी बार्डर के मंच पर शहीद भगतसिंह के जीवन पर नाटक खेलते कलाकार) 1885 के आस-पास पंजाब से लोग रोजगार के लिए बाहर के देशों में जाने लगे थे. पर इन मेहनती और स्वाभिमानी लोगों को वहां गुलाम देश के नागरिक के तौर पर लगातार अपमान का घूँट पीना पड़ता था. इस कारण उनके अन्दर देश की आजादी की भावना ज्यादा हिलोरें मारने लगी. 1913 में अमेरिका और कनाडा में रहने वाले भारतीयों जिनमें ज्यादातर सिक्ख थे ने “हिन्दी एशोसियेशन पेसिफिक पोस्ट” नाम का संगठन बनाया. इस संगठन ने 1857 के ग़दर से प्रेरणा लेकर देश में आजादी के लिए काम करने की योजना बनाई. क्रांतिकारी सोहन सिंह भागना इसके संस्थापक अध्यक्ष बनाए गए. क्रांतिकारी लाला हरदयाल को इस संगठन की ओर से ग़दर नाम का एक अखबार निकालने का जिम्मा दिया गया. इसी अखबार के नाम से बाद में इस संगठन को ग़दर पार्टी के नाम से जाना जाने लगा. देश में क्रांति संगठित करने लिए इस संगठन ने 1914 में 800 गदरी भारत भेजे. इनमें से ज्यादातर को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में कई को फांसी की सजा दी गयी. इन क्रांतिकारियों जिन्हें अब हम गदरी बाबा के नाम से संबोधित करते हैं की बीर गाथाएं सभी क्रांतिकारियों के लिए आज भी प्रेरणा की श्रोत हैं.
(मुजारा आंदोलन के प्रमुख योद्धाओं की तस्वीरों से 19 मार्च को सजा टीकरी बॉर्डर का मंच) देश में आजादी की लड़ाई भी तेज हो रही थी. राजशाहियों के खिलाफ देश भर में प्रजामंडल आन्दोलन जोर पकड़ रहे थे. 1927 में पंजाब क्षेत्र के सुनाम, मनसा और ठिकरीवाला में प्रजामंडल के कई सम्मेलन हुए. 17 जुलाई 1928 को अकाली आंदोलन के एक नेता सेवा सिंह ठिकरीवाला ने आधिकारिक तौर पर पटियाला से रियासती प्रजा मंडल आंदोलन शुरू किया. ठिकरीवाला इसके अध्यक्ष और अकाली नेता भगवान सिंह लौंगोवाल इसके महासचिव बने. पंजाब में अकाली आंदोलन की शुरुआत गुरुद्वारों को महंतों के कब्जे से मुक्त कर उसके प्रवंध को सामूहिक बनाने के सुधार का अभियान था. 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया गया और 1937 में इसकी पंजाब इकाई शुरू हुई.
(टीकरी बॉर्डर के मंच से सम्मानित किए गए शहीदों के परिजन) 1942 में ग़दर पार्टी का कम्युनिस्ट पार्टी में विलय हो गया. पर फिर 1946 में दो राष्ट्र के सवाल पर मतभेद के कारण इसका बड़ा हिस्सा अलग हो गया और “लाल कम्युनिस्ट पार्टी” का गठन किया. कामरेड तेजासिंह स्वतंत्र इसके नेता थे. 1948 में नाभा, जींद, पटियाला, कपूरथला, मालेरकोटला, फरीदकोट, कलसि या और नालागढ़ की आठ रियासतें स्वतंत्र भारत के एक नए राज्य के रूप में विलय हो गई, जिसे पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ कहा जाता था. पीईपीएसयू (पेप्सू) को महाराजाओं के शासन को बनाए रखने के लिए बनाया गया था. इन रियासतों के तहत भूमि व्यवस्था को पूर्व की भांति रखा गया था. 1948 में प्रजा मंडल, मुजारा आन्दोलन और अखिल भारतीय किसान सभा ने लाल पार्टी के साथ हाथ मिलाया. उनकी मांगें थी “जमीन जोतने वालों को जमीन का मालिकाना”.
(कामरेड कृपाल सिंह बीर और मुजारा आंदोलन के एक शहीद लोंगोवाल की बेटी जसमिन्दर कौर के साथ लेखक) कामरेड तेजासिंह स्वतंत्र ने पंजाब के मालवा क्षेत्र को अपने कार्यक्षेत्र के रूप में चुना, जहां बड़े जागीरदारों के खिलाफ मुजारों का आन्दोलन संगठित हो रहा था. मशहूर क्रांतिकारी बूझासिंह भी इनकी टीम में थे. लाल पार्टी के नेतृत्व में किशनगढ़ में जमीन पर कब्जे के संघर्ष में एक थानेदार की मौत हो जाने के बाद पटियाला राज की सेना ने किशनगढ़ को घेरा था और तोपों से उस पर हमला किया था. कम्युनिस्टों के नेतृत्व में मुजारों (गरीब व भूमिहीन किसानों) की बढ़ती ताकत से घबराए पटियाला के राजा को तत्कालीन भारत सरकार ने राज्य प्रमुख का स्थाई पद का लालच देकर भारत की संघीय यूनियन में शामिल कर लिया. तब इसका नाम “पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन” (पेप्सू) था. राज्यपाल की जगह राजा पटियाला राज्य प्रमुख था. पर बाद में भारत सरकार ने 1956 में पेप्सू का पंजाब में विलय कर दिया और पटियाला के राजा को दिया राज्य प्रमुख का पद ख़त्म कर दिया. आज जब पूरे इतिहास को ही बदल देने के दक्षिणपंथी प्रयासों को परवान चढ़ाया जा रहा है. ऐसे समय में पंजाब के मुजारा आन्दोलन के बारे में भी बाक़ी देश के लोगों को और खुद पंजाब की नई पीढी को जानने की जरूरत है.
(मुजारा आंदोलन के एक और योद्धा कामरेड ईश्वर खान के साथ लेखक, कामरेड ईश्वर खान की दो माह पूर्व मृत्यु हो चुकी है) मुजारा आन्दोलन के एक कार्यकर्ता कामरेड कृपाल सिंह बीर अब भी जीवित और सक्रिय हैं. पंजाब के मानसा जिले के बीर खुर्द (छोटी बीर) गाँव के निवासी हैं जिनकी उम्र 91 वर्ष है. वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के वरिष्ठ नेता हैं. कभी पार्टी के जिला सचिव की भी भूमिका भी निभाई है और आज भी पूरी तरह से किसान आन्दोलन में सक्रिय हैं. चुनाव के दौरान 15 मई को पार्टी कार्यालय में इनसे मुलाक़ात हुई. 16 मई को अपने गाँव में चुनावी सभा कराने के लिए नेताओं से समय लेने पहुंचे थे. इनका गाँव भीखी कसबे से 7 किमी दूर और मानसा जिला मुख्यालय से 23 किमी दूर है. पार्टी जिला कार्यालय मानसा में अक्सर आते हैं. अभी भी गाँव से 7 किलोमीटर साईकिल चलाकर भीखी पहुँचते हैं. वहां से बस से मानसा. वापसी में फिर भीखी से 7 किलोमीटर साईकिल चला कर अपने घर पहुँचते हैं. यानी एक दिन में 14 किलोमीटर साईकिल अब भी चलाते हैं. अभी कुछ साल पहले तक वे मानसा भी साइकिल से ही आते थे. यानी एक दिन में 46 किलोमीटर साईकिल चालाते थे.
(मुजारा आंदोलन के दो योद्धाओं कृपाल सिंह बीर और कामरेड बूटासिंह के साथ लेखक, कामरेड बूटासिंह अब नहीं हैं।) इनका जन्म नवम्बर 1928 में वर्मा में हुआ था पिता वहीँ नौकरी करते थे. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 1942 में इन्हें पिता के साथ वर्मा से पैदल भाग कर भारत आना पड़ा. स्कूली पढाई कक्षा 3 तक रही. जब पंजाब पहुंचे तो उन दिनों यहाँ बड़े जागीरदारों के खिलाफ लाल पार्टी के नेतृत्व में मुजारों का आन्दोलन चल रहा था. इस आन्दोलन का नेतृत्व ग़दर आन्दोलन से जुड़े कम्युनिस्ट कर रहे थे. उन्होंने ही लाल पार्टी का गठन किया था जिसका झंडा लाल और उसपर निशान हसिया हथोड़ा था. युवा होता हुआ कृपाल सिंह बीर भी 1944 में इस आन्दोलन में सक्रिय हो गए. 1949 में उन्होंने लाल पार्टी की सदस्यता ली. यह वह दौर था जब पंजाब का मुजारा आन्दोलन और उसका दमन अपने चरम पर था. मुजारों ने पूरे पंजाब में जागीरदारों की लाखों एकड़ जमीनों पर कब्जा कर लिया था. पटियाला राज की सेना के साथ मुजारों की झड़पें हो रही थी. 1948 तक मुजारों को जमींदारों के अत्याचारों से बचाने के लिए 30– 40 की संख्या वाले सशस्त्र किसानों के कई जत्थे गठित किए गऐ. इन जत्थों में लगभग 1100 सशस्त्र किसानों की गोलबंदी हो चुकी थी.
(मुजारा आंदोलन का मुख्य केंद्र मानसा जिले का किशनगढ़ गांव) 51-52 में यहाँ राष्ट्रपति शासन के दौरान भारी सरकारी दमन के आगे 48 से 51 के बीच जमीनों पर काबिज गैर मौरूसी कास्तकार अपना कब्जा बरक़रार नहीं रख सके. जबकि दखली कास्तकार अपना कब्जा बरकरार रखने में कामयाब रहे. पहले विधान सभा चुनाव में मुजारा आन्दोलन की लाल पार्टी के चार विधायक चुनाव जीत गए. विधान सभा त्रिशंकु आयी. उसके बाद मुजारों को जमीन का मालिकाना हक़ देने की शर्त पर लाल पार्टी ने ज्ञानसिंह राड़ेवाल की सरकार को समर्थन दिया. इसी के दबाव में 1953 में किसानों की बेदखली रोकने व सुरक्षा प्रदान करने के लिए पेप्सू कृषक अधिनियम पारित किया गया. इसी वर्ष पेप्सू भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया और किसानों को जमीन का मालिकाना दे दिया गया. 1948 से 52 तक चले जबरदस्त मुजारा आन्दोलन में 884 गावों की 18 लाख एकड़ जमीन को बाँट कर मुजारों (गैर मौरूसी व दाखली कास्तकारों) को उस दखल जमीन का मालिकाना हक दिया गया.
टीकरी के मंच से सम्मनित किए गए मुजारा शाहिद के परिजन) मुजारा आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण कामरेड कृपाल सिंह बीर 52 में हुए पहले पंचायती चुनाव में बीर बेहपई गाँव के पहले सरपंच (ग्राम प्रधान /मुखिया) चुने गए. अब इस गाँव की दो पंचायतें हो चुकी हैं. बाद में लाल पार्टी ने सीपीअई में विलय कर दिया. 84 में पार्टी लाइन से मतभेतों के कारण वे सीपीएम और फिर 94 में भाकपा (माले) में शामिल हो गए. अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कामरेड रुलदू सिंह के साथ कामरेड कृपाल सिंह बीर सन् 2016 में लगातार 11महीने और अभी सन् 2019 में लगातार तीन महीने किसानों की कर्ज माफी की मांग पर मानसा जिला मुख्यालय पर धरने में बैठे रहे. पढ़ने लिखने का बड़ा शौक है. इनके घर में (गाँव में) इन्होंने 2000 किताबों की एक लाइब्रेरी बनाई है. कुछ लिखा भी है और कुछ लिखवाया भी है. गाँव में मजदूरों किसानों के बच्चों को वे साहित्य पढने को प्रेरित करते रहते हैं. आज उनकी लाइब्रेरी की देखभाल भी ऐसे भी नई पीढी के बच्चे करने लगे हैं.