भारत की न्यायपालिका से जुड़ी कुछ चिन्ताएं
भारतीय न्यायपालिका से जुड़े कतिपय सवाल सामान्य नागरिकों के लिए भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। भारत का शीर्ष न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय है जिसके नीचे उच्च न्यायालय है और उच्च न्यायालय के नीचे जिला न्यायालय है और उसके अधीन निचली अदालत है। फिलहाल भारतीय न्यायपालिका से जुड़ी एक महत्वपूर्ण किताब जिसका प्रकाशन पिछले वर्ष हुआ 'ह्वेदर इंडियन ज्यूडिशरी' का अध्ययन कई दृष्टियों से विशेष उपयोगी है जो भारतीय न्यायपालिका के भीतरी दृश्यों का व्यापक और विश्लेषणात्मक रूप प्रस्तुत करता है।
मार्कंडेय काटजू अपनी 308 पृष्ठों की इस पुस्तक के छह खंडों के कुल 37 अध्यायों में लगभग भारतीय न्यायपालिका से जुड़े प्रमुख पक्षों पर अपने महत्वपूर्ण विचार प्रकट करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों में मार्कंडेय काटजू सर्वाधिक मुखर हैं और उनकी प्रतिक्रियाएं हम सबका ध्यान खींचती हैं।
पिछले कुछ वर्षों से, विशेषतः 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद न्यायपालिका लगातार सुर्खियो, चर्चाओं और बहसों में है। इस ऐतिहासिक विवादास्पद प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ उनके चार वरिष्ठ सहयोगियो – जे चेलमेश्वर, एमबी लाकुर, रंजन गोगोई और कुरियन जोसेफ ने कई मुद्दे उठाए थे जिनमें एक मुद्दा उच्च अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों-प्रोन्नतियों का भी था। इन चार वरिष्ठ जजों में से तीन सेवानिवृत्त हो चुके हैं और रंजन गोगोई 3 अक्टूबर 2018 से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हैं जो 17 नवंबर 2019 को सेवानिवृत्त होंगे। अगर पिछले 2 वर्ष को ही ध्यान में रखकर न्यायपालिका से जुड़े कुछ फैसलों और उनसे उत्पन्न सवालों को देखें तो यह स्पष्ट होगा कि बार-बार न्यायपालिका की तटस्थता, निष्पक्षता और पारदर्शिता को लेकर न्यायपालिका के भीतर और बाहर चिंताएं और बहसें जारी है, जिन्हें स्वस्थ लक्षण के रूप में भी देखा जा सकता है।
ताजा उदाहरण मद्रास उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश विजया कमलेश तहिल रमानी (3.10.1958) का है। वे बम्बई हाईकोर्ट में जो कोलकाता हाईकोर्ट (1 जुलाई 1862) के बाद देश का सबसे पुराना दूसरा हाईकोर्ट (14 अगस्त 1862) है, में 17 वर्ष तक जज रही थीं। 5 दिसंबर 2017 को वे मुंबई हाईकोर्ट में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुई और 4 अगस्त 2018 से वे वहां मुख्य न्यायाधीश हैं। एक वर्ष बाद वे सेवानिवृत्त होंगी। पिछले 28 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने उनका तबादला मेघालय हाईकोर्ट कर दिया। मेघालय हाईकोर्ट नया है जिसकी स्थापना 23 मार्च 2013 में हुई। मुख्य न्यायाधीश सहित यहां जजों की कुल संख्या मात्र तीन है जबकि मुंबई हाईकोर्ट में जजों की कुल स्वीकृत पद 75 है। ताहिल रमानी का अप्रसन्न होना स्वाभाविक था। उन्होंने स्थानांतरण के आदेश पर पुनर्विचार का अनुरोध किया। पुनर्विचार का आग्रह अस्वीकार किया गया और बीके ताहिल रमानी ने अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति को भेजा। उसकी एक प्रति सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भी भेज दी।
उनके तबादले को 'मनमाना' कहा गया है और उनके इस्तीफे को 'ग्रेसफुल' कहा जा रहा है। उनके तबादले का मुख्य कारण 'न्याय के लिए अच्छा प्रशासन' कहा गया है। यह सच है कि प्रत्येक हाईकोर्ट समान है और वहां कोई ऊंचा-बड़ा नहीं है। संवैधानिक दृष्टि से यह सही है कि सभी हाईकोर्ट को समान शक्तियां हैं। 6 सितम्बर को विरोध में दिया गया मुंबई हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश बीके ताहिल रमानी का त्यागपत्र कई सवाल इसलिए भी खड़ा करता है कि इसके पहले 2017 में ऐसा ही एक विवाद खड़ा हुआ था जब कर्नाटक हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाईकोर्ट में ट्रांसफर किए जाने पर जस्टिस जयंत पटेल ने विरोध स्वरूप इस्तीफा दिया था। इन दोनों तबादलों के प्रस्ताव में सूचना का अभाव है। ताहिल रमानी के मेघालय हाईकोर्ट में किए गए तबादले को कईयों ने 'बिलकिस बानो केस' से भी जुड़ा है। बिल्किस बानो का केस 2002 के गुजरात सांप्रदायिक दंगा या नरसंहार से जुड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गुजरात की अदालत से महाराष्ट्र स्थानांतरित किया था और ताहिल रमानी ने मई 2017 में बिल्किस बनो सामूहिक दुष्कर्म मामले में सभी 11 व्यक्तियों की उम्र कैद की सजा बरकरार रखी थी।
उनके तबादले को इससे जोड़ना कईयों ने गलत माना है क्योंकि उसके बाद ही उन्हें मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। पर शंका शंका ही है। जस्टिस पटेल के तबादले के पीछे इशरत जहां एनकाउंटर 2004 को भी जोड़ा गया था क्योंकि जस्टिस पटेल ने इसमें सीबीआई को जांच का आदेश दिया था और इस केस में गुजरात के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नजदीकी बताए गए थे। ऐसी शंका और इस तरह के अनुमानों का कोई ठोस आधार नहीं है पर शंकाएं तुरंत मिटाई भी नहीं जा सकती हैं। तबादलों के कारण जब अज्ञात रहते हैं तो शंकाओं के बादल और घने हो जाते हैं।
मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों ने ताहिल रमानी के तबादले का विरोध किया। अपने कार्य का बाॅयकाट किया। मेघालय हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के पद पर अजय कुमार मित्तल 28 मई 2019 को नियुक्त हुए थे और मात्र 4 महीने बाद उनका तबादला मद्रास हाईकोर्ट कर दिया गया। मेघालय हाई कोर्ट 6 वर्ष का है और इस अल्पावधि में अजय कुमार मित्तल वहां के सातवें मुख्य न्यायाधीश है।
मेघालय हाईकोर्ट के जज सुदीप रंजन सेन ने 10 दिसम्बर 2018 को नागरिकता से जुड़े एक मामले की सुनवाई के बाद दिये अपने आदेश में यह लिखा था कि 'भारत को हिंदू राष्ट्र होना चाहिए था'। उन्होंने अपने आदेश में यह लिखा था 'आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। पाकिस्तान ने स्वयं को इस्लामिक देश घोषित किया और इसी तरह भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए था लेकिन यह एक धर्मनिरपेक्ष देश बना रहा।' यह आदेश संविधान के विरुद्ध था। उन्होंने मुगलों के समय लोगों के धर्मांतरण का भी जिक्र किया था और मेघालय के गवर्नर तथागत राय की पुस्तक 'माइ पीपल अपरुटेड: द एक्सोडस ऑफ हिंदू फ्रॉम ईस्ट पाकिस्तान एंड बांग्लादेश' का हवाला दिया।
क्या यह चिंताजनक नहीं है कि एक राज्य विशेष का राज्यपाल और न्यायधीश के सोच विचार कैसे हैं ? बाद में जस्टिस सुधीर रंजन सेन ने अपनी सफाई दी और यह कहा कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल स्तंभों में है। क्या हाईकोर्ट के किसी न्यायाधीश द्वारा प्रधानमंत्री की प्रशंसा करना उचित है ? क्या इससे न्यायाधीशों की निष्पक्षता पर सवाल उठाया नहीं जा सकता ? मेघालय के जस्टिस सुधीर रंजन सेन ने मोदी सरकार की एक तरह से प्रशंसा की थी और पटना हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मुकेश कुमार रसिक भाई शाह ने 12 अगस्त 2018 को बीबीसी के एक हिंदी पत्रकार से बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मॉडल' और 'हीरो' कहा था – 'नरेंद्र मोदी एक मॉडल हैं। वह हीरो हैं। जहां तक मोदी की बात है तो पिछले एक महीने से यही चल रहा है। सोशल मीडिया पर ऐसे सैकड़ो क्लिपिंग्स है। रोज पेपर में भी यही चलता है।'
वे 12 अगस्त 2018 से 1 नवंबर 2018 तक पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। 2 नवंबर 2018 से वे सुप्रीम कोर्ट के जज हैं।
स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका झटके खा-खाकर संभलती रही है। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में, विशेषतः आपातकाल में भी कुछ ऐसे जज थे जिन्होंने अपना नुकसान कर न्यायपालिका की स्वतंत्रता कायम रखी। सुप्रीम कोर्ट के हंसराज खन्ना और इलाहाबाद हाईकोर्ट के जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने समय में न्यायपालिका को गरिमा प्रदान की थी, जब न्यायपालिका एक प्रकार से कायर थी। खन्ना ने आपातकाल के समय सत्य का पक्ष लिया था और परिणामों का सामना किया। वे 1971 में सुप्रीम कोर्ट के जज बने थे और 1977 में उन्होंने त्यागपत्र दिया। इंदिरा सरकार के विचारों से जहां ए एन राय, एच एन बेग, वाई वी चंद्रचूड़ और पीएन भगवती सहमत थे, वहां खन्ना का निर्णय अकेला था। वे असहमति की शानदार आवाज थे। उन्होंने संविधान की बुनियादी संरचना की रक्षा की। न्यायपालिका में यह मत-भिन्नता महत्वपूर्ण है। असहमति के स्वर के सभी क्षेत्रों में बड़े उदाहरण हैं।
केंद्र की सरकार जब अधिक ताकतवर होती है, सुप्रीम कोर्ट थोड़ा बहुत भयभीत, विभाजित और कमजोर दिखाई देता है। सुप्रीम कोर्ट को दुनिया की सबसे शक्तिशाली अदालत कहा गया है। यह एक स्वस्थ लक्षण है कि न्यायपालिका के भीतर से असहमति और असंतोष के स्वर उठते हैं जिनका सदैव सम्मान किया जाना चाहिए। बार कांउंसिल ने भी समय-समय पर विरोध प्रकट किया है जो शुभ लक्षण है। सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने इस वर्ष कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी और दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश संजीव खन्ना को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाए जाने की आलोचना की, एतराज जाहिर किया। इसका विरोध बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी किया। जस्टिस संजीव खन्ना की प्रोन्नति पर यह सवाल खड़ा हुआ कि कई जजों की वरीयता को नजरअंदाज कर उन्हें प्रोन्नति दी गई है। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज ने अपने पत्र में इसे 'न्यायपालिका के लिए काला दिन' कहा।
दिसंबर 2018 में कॉलेजियम ने राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नदार जोग और दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफारिश की थी जिसे उसने स्वयं वापस लिया। ऐसे निर्णय से कॉलेजियम की असमंजस की स्थिति ही प्रकट होती है। कॉलेजियम को पुनः नए फैसले लेने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? क्यों कॉलेजियम कुछ समय बाद ही अपने फैसले को निरस्त कर दूसरे फैसले लेता है ? चार वरिष्ठतम जजों ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस – 12 जनवरी 2018 – में कॉलेजियम की कार्यशैली पर भी प्रश्न खड़े किए थे। वरिष्ठता के आधार पर ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त होते रहे हैं और वरिष्ठता पर सदैव ध्यान नहीं दिया गया है प्रोन्नति में। चिंताजनक बात यह है कि ताहिल रमानी का मेघालय तबादला कर एक प्रकार से उन्हें अपमानित किया गया और रोमिला थापर से जेएनयू प्रशासन ने उनका सी वी मांग कर अपमानित किया। दोनों महिलाएं हैं। दोनों के कार्यक्षेत्र भिन्न है पर अगर जोड़कर देखें तो कई चीजें सामने आती हैं।
न्यायपालिका में केवल तबादलों, नियुक्तियो, प्रोन्नतियों का प्रश्न ही प्रमुख नहीं है। वहां एक बड़ा प्रश्न भ्रष्टाचार का है। अगर पक्षपात और भ्रष्टाचार दोनों एक साथ जुड़ जाएं तो कैसा परिणाम निकलेगा। पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस राकेश कुमार का स्थान मुख्य न्यायाधीश के बाद है। उन्होंने उच्च न्यायालय तथा प्रशासन पर जो सवाल खड़े किए,, क्या उनकी अनदेखी की जानी चाहिए ? उनका आरोप था कि भ्रष्ट न्यायिक अधिकारीगण पटना उच्च न्यायालय से संरक्षण प्राप्त करते हैं। 28 अगस्त को जहां सुप्रीम कोर्ट ने ताहिल रमानी का मेघालय हाईकोर्ट तबादला किया उसी तारीख को राकेश कुमार ने अपने 20 पन्नों में कई सवाल पूछे थे। उन्होंने न्यायपालिका पर प्रश्न खड़े किए। सरकारी बंगलों पर जजों द्वारा करोड़ों की फिजूलखर्ची की बात की और यह पूछा कि जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप साबित हो चुके हैं उन्हें मामूली सजाएं क्यों दी जाती हैं ? दूसरे दिन 29 अगस्त को पटना उच्च न्यायालय की 11 सदस्य बेंच ने उनके आदेश को स्थगित कर उनके सभी न्यायिक कार्य वापस लिए।
जस्टिस राकेश कुमार ने अपने सहकर्मियों पर गंभीर आरोप लगाए थे। हाईकोर्ट की कार्यप्रणाली पर सवाल सामने रखे थे। साफ कहा था कि बिहार में न्यायपालिका भ्रष्टाचार में डूबी हुई है।
न्यायपालिका के भीतर से जो आवाजें उठ रही है, उन्हें सुनकर हमारे जैसे सामान्य नागरिक की चिंताएं और बढ़ जाती हैं क्योंकि न्यायपालिका हमारे मौलिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान की रक्षा करती है। अगर यह सब कमजोर होने लगे तो ?
(समकालीन जनमत से साभार)