आज मुझे देश का नागरिक होने पर शर्म आ रही है
महेंद्र मिश्र
बीएचयू की संस्कृत विभाग की घटना सामने आने और अब उसके अध्यापक प्रोफेसर फिरोज खान के वहां से छोड़कर अपने घर चले जाने के फैसले के बाद महसूस हो रहा है कि नागरिकता के हमारे दर्जे में गिरावट आ गयी है। एक नागरिक के तौर पर अगर हम दूसरे नागरिक के सम्मान और अधिकार की रक्षा न कर सकें तो फिर नागरिकता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। दरअसल संघ और बीजेपी नागरिकता के इस बोध को ही मार देना चाहते हैं। और किसी की बुनियादी पहचान को उसके धर्म, जाति और क्षेत्र तक सीमित कर देना चाहते हैं। किसी की पहचान अब उसके पेशे से नहीं होगी। उसके अपने कामों से नहीं होगी। कुल मिलाकर अब वह जन्म के आधार पर तय होगी। आप क्या करेंगे यह इस बात से तय होगा कि आप किस धर्म में जन्म लिए हैं। किस जाति से ताल्लुक रखते हैं।
संस्कृति और परंपरा के नाम पर देने के लिए इनके पास यही है। ये इतिहास के पहिए को पीछे घुमाना चाहते हैं। जेएनयू को अनायास निशाना नहीं बनाया गया है। इसके जरिये देश में ज्ञान, विज्ञान और तर्क की पूरी परंपरा और विरासत को ही ध्वस्त करने की साजिश है। वह महज एक प्रतीक है। उसके जरिये संघ और बीजेपी मोदी सरकार द्वारा अपने उस अपढ़, कुपढ़, अमानवीय, जाहिल मनुवादी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं जिसमें एक इंसान का इंसान होना भी मयस्सर नहीं था।
दरअसल देश को मूर्खों के स्वर्ग में तब्दील कर दिया गया है। और हर शख्स राष्ट्रवाद की अफीम सूंघकर मदमस्त है। और फिर उसकी आड़ में हर तरह की जाहिलियत को जायज ठहराया जा रहा है। भला इनसे पूछिए कि अगर एक मुस्लिम संस्कृत पढ़ भी लिया उससे तुम्हारा क्या नुकसान हो जाएगा। बल्कि इससे तो तुम्हारे धर्म, संस्कृति और परंपरा की तमाम बातें दूसरे धर्मों को ही पता चलेंगी। उससे धर्म के प्रचार-प्रसार में भी मदद मिलेगी। लेकिन क्या कहा जाए जाहिलियत जब सिर चढ़ कर बोलने लगती है तो सबसे पहले वह विवेक नाश करती है।
बहरहाल इनका यही इतिहास रहा है। तुम खुद अपने धर्म के खिलाफ रहे हो। वैसे भी भारतीय समाज जातियों का समुच्चय था। अरबों ने जिसे हिंदू का भौगोलिक नाम दिया और फिर उसे तुमने अपना धर्म बना लिया और अब उसी पर गर्व करते हो। दरअसल जातियां कभी समावेशी रही ही नहीं। उन्होंने हमेशा अपने भीतर से लोगों को बहिष्कृत करने का काम किया। चार वर्णों के बीच पैदा हुईं अनगिनत जातियां और उपजातियां इसी का नतीजा हैं।
क्या कभी हिंदू धर्म के लोग सोच पाए कि दुनिया में मौजूद तमाम धर्मों के मुकाबले वे क्यों नहीं देश के बाहर किसी दूसरे मुल्क में अपने धर्म को स्थापित कर सके। इन लोगों ने ईसाइयों और मुसलमानों से भी नहीं सीखा। जो न केवल अपनी पूरी जेहनियत में बेहद उदात्त हैं बल्कि दूसरे धर्मों के लोगों को शामिल करने में परहेज की बात तो दूर उसके लिए बाकायदा योजना बनाते हैं। 622 में अरब से पैदा हुआ इस्लाम आज दुनिया के दो तिहाई हिस्सों में पहुंच गया। लेकिन आदि काल से चला आ रहा सनातन धर्म भला क्यों वहीं का वहीं खड़ा रहा। किसी और से न सही तुम अपने ही देश में पैदा हुए बौद्ध धर्म से सीख लेते। जिसने दूसरे देशों में अपनी धार्मिक सत्ता स्थापित की।
संघ तो अपने पुरखों से भी ज्यादा कूपमंडूक है। अगर उसको मुस्लिम नाम से परहेज है तो उसे बताना चाहिए कि रसखान से लेकर रहीम और कबीर से लेकर पूरी सूफी विरासत और भक्ति परंपरा को वह कहां स्थान देगा? क्या शाहजहां के बेटे दाराशिकोह को इतिहास की विरासत से काट दिया जाना चाहिए? जिसने न केवल संस्कृत भाषा सीखी थी बल्कि वेद से लेकर उपनिषद तक तमाम हिंदू धार्मिक ग्रंथों का फारसी में अनुवाद किया था और फिर इसके जरिये उसे सात समंदर पार के लोगों को पढ़ने के लिए उपलब्ध कराया था। मुगलों के पूरे शासन काल में संस्कृत उनकी प्रमुख भाषा बनी रही। और तमाम चीजों का उसी दौर में संस्कृत से फारसी में रूपांतरण हुआ।
मुस्लिम तो छोड़ दीजिए कोई हिंदू भी आज के दौर में संस्कृत नहीं पढ़ना चाहता है। क्योंकि यह भाषा ही अपने आप में इतनी क्लिस्ट है कि किसी की स्वाभाविक रुचि का हिस्सा नहीं बन पाती है। ऊपर से न तो इसमें रोजगार है न ही उसकी दूसरी कोई बड़ी उपयोगिता। ऐसे में अगर कोई मुस्लिम पढ़कर उसे आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन यह वह तबका है जो जिस डाल पर बैठता है उसे ही काटने में विश्वास करता है। जहां कुल्हाड़ी पड़ने वाली हो उसके नीचे पैर रखने के लिए तैयार रहता है। इसलिए इसका कुछ नहीं हो सकता है।
और इन सबसे अलग एक आधुनिक और सभ्य समाज में क्या कोई देश और व्यवस्था अपने नागरिकों से किसी भाषा को सीखने और उसके मुताबिक पेशा अपनाने से रोक सकती है। लेकिन संघ संचालित मानसिक विकलांगियों की सत्ता में कुछ भी संभव है। दरअसल यह संघियों की कुंठा है जो मुस्लिम विरोध के नाम पर तरह-तरह से निकल रही है। लेकिन न तो इसका देश की संस्कृति कुछ लेना-देना है और न ही वह उसकी परंपरा का कोई हिस्सा है। सहिष्णुता और समावेश भारतीय जेहनियत का हिस्सा रहा है। और उससे पैदा हुई विविधता उसकी बुनियादी पहचान है।
संघ-बीजेपी अपने हिंदी-हिंदू और हिंदुस्तान के नारे के जरिये इस विविधता को खत्म करने पर उतारू हैं। उनको समझना चाहिए कि इससे विविधता तो किसी रूप में भी नहीं खत्म होगी लेकिन देश और उसकी व्यवस्था को ये जरूर छिन्न-भिन्न कर देंगे। हालांकि सत्तर सालों तक लोकतंत्र में जीने के बाद अब शायद ही देश की जनता इसकी इजाजत दे। और बात निश्चित तौर पर तय है कि इनका आखिरी स्थान इतिहास का कूड़ेदान है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में जैसा कि मैं बार-बार कहता रहा हूं ये देश का बहुत ज्यादा नुकसान कर चुके होंगे। और समाज में उस स्तर की नफरत और घृणा का प्रसार कर चुके होंगे जिसे फिर से पाटने में कई दशक लग जाएंगे।