ईको सिस्टम की रक्षा में किसानों का परम्परागत ज्ञान ज्यादा समृद्ध-
गतांक से आगे
पुरुषोत्तम शर्मा
ग्रीन बोनस के लिए ललचाई दिल्ली देहरादून की नजरें
राज्य बनने के बाद सत्ताधारी कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने योजनाबद्ध तरीके से उत्तराखंड में बचे इको सिस्टम के बदले राज्य को ग्रीन बोनस देने की मांग शुरू कर दी थी. भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल “निशंक” ने तो आगे बढकर हिमालयी राज्यों की बैठक कराने और राज्य को प्रतिवर्ष चालीस हजार करोड़ रुपये ग्रीन बोनस के रूप में देने की मांग कर डाली. तब यह राशि राज्य के कुल सालाना बजट का दोगुना से भी ज्यादा थी. इस अभियान में वर्तमान मुख्यमंत्री से लेकर कई पर्यावरणविद तथा एनजीओ भी लगे हैं. एनजीओ ने हिमालयी राज्यों का अपना एक नेटवर्क भी स्थापित कर दिया है.
दरअसल ग्रीन बोनस के नाम पर यह पूरा अभियान जो पिछले बारह वर्षों से उत्तराखंड में चलाया जा रहा है वह “इको संसिटिव जोन” के निर्माण के लिए वातावरण तैयार करने के अभियान का ही हिस्सा था जो साम्राज्यवादियों और उनकी हितपोषक फंडिंग एजेंसियों द्वारा वित्त पोषित था. हिमालय और उसके इको सिस्टम को हजारों वर्षों से संरक्षित रखने वाले लोगों को उनकी जमीनों और परम्परागत आजीविका से बेदखल कर आखिर यह ग्रीन बोनस किसके लिए माँगा जा रहा है? मगर 12 हजार से ज्यादा जंगल वन पंचायतों के माध्यम से तैयार कर हिमालय और उसके पर्यावरण की रक्षा कर इन नदियों को बचाने वाले पहाड़ के ग्रामीणों की वन पंचायतों को आज तक किसी एजेंसी ने कोई ग्रीन बोनस नहीं दिया है. जबकि पहाड़ में 17 सौ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को नष्ट करने वाली जल विद्युत परियोजनाओं को चलाने वाली कंपनियों को बिना कार्बन उत्सर्जन के विद्युत उत्पादन के लिए लाखों रुपये ग्रीन बोनस के रूप में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं दे रही हैं. क्या वे इसकी हकदार हैं?
जारी....