ईको सिस्टम की रक्षा में किसानों का परम्परागत ज्ञान ज्यादा समृद्ध- गतांक से आगे

ईको सिस्टम की रक्षा में किसानों का परम्परागत ज्ञान ज्यादा समृद्ध-


गतांक से आगे


पुरुषोत्तम शर्मा


शोषण के लिए बनाए रखा रिजर्व जोन


पहले अंग्रेजों और बाद में आजाद भारत के शासकों ने उत्तराखंड की इस विकसित होती आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्थ को पूरी तरह ध्वस्त करने का षड़यंत्र किया. अंग्रेजों ने उत्तराखंड के इस पर्वतीय क्षेत्र को वन आधारित कच्चे माल व सस्ते श्रम की आपूर्ति के लिए इस्तेमाल किया. तब न सिर्फ फैलते रेल लाइनों के जाल के लिए पहाड़ के जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा गया बल्कि सर्दियों में आग सेंकने के लिये पहाड़ के परम्परागत पेड़ों को काट कर उसका कोयला बनाया गया. साथ ही विकसित होते शहरी केन्द्रों व फ़ौज के लिए यहां के युवाओं की सस्ते श्रम के रूप में सप्लाई होती रही. यह क्रम आजादी के पच्चीस साल बाद तक जारी रहा.


सन् उन्नीस सौ पिछ्हत्तर आते–आते देश के शासक वर्ग की जरूरतें बदलने लगी थी. देश के विकसित हो चुके शहरी केन्द्रों को अब सस्ते श्रम की जगह प्रयाप्त बिजली व स्वच्छ पानी की जरूरतों से जूझना पड़ रहा था. वहीं विकसित राष्ट्रों द्वारा ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के चलते दुनियां के स्तर पर पर्यावरण संरक्षण एक प्रमुख एजेंडा बन कर सामने आ गया. ऐसे में उत्तराखंड के इस पर्वतीय भूभाग को बिजली, स्वच्छ पानी तथा पर्यावरण व जैव विविधता के संरक्षण के लिए रिजर्व जोन में तब्दील करने की नई रणनीति पर शासक वर्ग आगे बढ़ने लगा. मगर यह तभी संभव था जब यहां की परम्परागत आर्थिकी के आधार को ख़त्म किया जाता, इसलिए शासक वर्ग ने जानबूझ कर यहां की कृषि, पशुपालन व ग्रामीण दस्तकारी को हतोत्साहित करने की नीति का अनुसरण कर लोगों को यहां से पलायन के लिए मजबूर किया. आज उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र के गावों में ही युवाओं को देखा जा सकता है. उन क्षेत्रों में पशुपालन और कृषि पर आधारित उनकी परम्परागत आजीविका के आधार का मजबूत होना इसका मुख्य कारण है. चीन व नेपाल सीमा से जुड़े धारचुला, मुनस्यारी (जिला पिथौरागढ़), जोशीमठ (जिला चमोली), ऊखीमठ (जिला रुद्रप्रयाग), भटवाड़ी और रवाईं (जिला उत्तरकाशी) ऐसे क्षेत्र हैं जहां युवा आज भी गावों में टिका है. बाक़ी पहाड़ पलायन की मार से त्रस्त है.


जारी ....