भविष्य के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा चाहिए या उन्माद?

भविष्य के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा चाहिए या उन्माद? 


--डॉ अंकित ॐ 


भारत में 130 करोड़ जनता पर लगभग 8 लाख पंजीकृत एलोपथिक डाक्टर है। अर्थात 1500 आबादी पर एक डाक्टर। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की मानें तो 1000 आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। 2012 में WHO के अध्यन के बाद स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने के लिए यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज को तरजीह दी गयी। 2013 में सरकार ने योजना बनायीं की देश में 6 लाख डाक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए 200 नये मेडिकल कॉलेज खोले जायेंगे. मतलब 8 वर्ष पूर्व ये योजना बनी। पर यह योजना कागज के पन्नों में ही सीमित रह गयी। शायद आम जनता को इसकी भनक भी न लगी हो, क्यूंकि आज के दौर में आप इतना व्यस्त हो कि खबरें भी आप अपने मन के हिसाब से देखते हैं, या किसी चैनल द्वारा प्रायोजित प्रोपेगंडा में मगन रह जाते हैं। जब कोरोना जैसी महा बीमारी आपके करीब पहुँचती है, तब आप जागते हैं. खैर जब जागो तब सवेरा।


अब आप आजादी के बाद से 2012 तक के स्वास्थ्य सेवा के वो आंकड़े देखें। जो आपको निश्चित तौर पर ये समझा देंगे कि बिना आधुनिक सुविधाओं के, डाक्टरों की कमी के बावजूद देश ने ये आंकड़े कैसे हासिल किए? आजादी के 60 साल बाद जब अध्ययन हुआ तो नवजात मृत्यु दर 150 से घट कर 50 रह गयी. मातृ मृत्यु दर 2000 से घट कर 200, लगभग 10 गुना कम हो गयी, औसत उम्र पर अपेक्षा दर जो आजादी के वक़्त 31 साल थी, वो 2012 में 65 साल हो गयी। हालाँकि डाक्टरों की औसत उम्र में लगभग 7 साल की कमी देखी गयी। जो दर्शाता है कि भारत के डाक्टरों ने विषम परिस्थितियों में भी कठिन परिश्रम, अनुसासन और समाज के प्रति जिम्मेदार रवैया हमेशा बरकरार रखा। देश को स्वास्थ्य के बेहतर मार्ग की और अग्रसर किया. फिर सिलसिला कहां टूटा कि आज हम अस्पतालों के बिस्तर को कभी होटल में तो कभी रेल गाडी के डिब्बों में तलाश रहे हैं. हालाँकि आपदा का मतलब ही यही होता है संसाधनों से बड़ा समस्या का होना। फिर भी आज इतने साल बाद भी देश स्वास्थ्य सेवा में क्यों पिछड़ा है? इसको समझने के लिए एक डॉक्टर की मनोस्थिति को समझना जरूरी है। अगर डॉक्टर्स को योद्धा कह रहे हो तो सैनिक सुने बिना तो युद्ध जीतना मुमकिन नहीं? 


कोई देश स्वास्थ्य सेवा का ताना बाना अपने स्वास्थ्य कर्मी और जनता के आधार पर बुनता है, ताकि सेवा तार्किक और सार्थक रहे। मगर हमारे देश की स्वास्थ्य नीतियों को देखें तो ना ही कभी इसमें जनता को आधार बनाया गया ना ही डाक्टरों के विचारों को अपनाया गया। स्वास्थ्य तंत्र आप के द्वारा चुने हुए नेताओं द्वारा लाल फीता शाही का गुलाम हो गया और नीतियों को अपने-अपने हिसाब से हर राज्य ने अपने आर्थिक लाभ के लिए कुछ अमीरजादों को भेट दे दिया। भारत की संसद में 70 MP ऐसे हैं जिनके अपने निजी मेडिकल कॉलेज हैं।
 
खैर आप जानिए आपके कोरोना योद्धा की दशा, जिस देश को स्वास्थ्य सेवा को नियमित करने की व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए वहां 70% से अधिक युवा डाक्टर कॉन्ट्रैक्ट के कर्मचारी की तरह काम करते हैं। क्यूंकि वो रेजीडेंसी स्कीम (एक दूधारी तलवार जैसी योजना जो डॉक्टर और सिस्टम दोनों को धीरे धीरे निगल जाती है), के तहत आते हैं, जिसकी अवधि 45 दिन से एक वर्ष की होती है। इसे 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है बस। मतलब डॉक्टर सरकारी तंत्र में परमानेंट नहीं हो सकता, जब तक कि परमानेंट कमीशन UPSC के द्वारा चुन कर न आये। और यकीन मानिये इसमें इतनी कम सीटें होती हैं कि डाक्टरों को ना चाह कर भी प्राइवेट सेक्टर में जाना पड़ता है। नौकरी करने या अपना छोटा क्लिनिक या अस्पताल खोलने। देश की 70-75 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं निजीकृत है बाकि लगभग 25 प्रतिशत सरकारी। आप वोट इसलिए देते हैं कि आप को 5 साल और अँधेरे में रख लिया जाये, कही आम आदमी जाग नहीं जाये। जो सवाल डाक्टरों से जनता करती है वो नेताओं के पीछे छुपे हुए बाबू लोगों से ना करने लगे। वैसे भी जिम्मेदारी सरकार की है।


अब बात करते हैं डाक्टर की। जो 25 वर्ष की उम्र में MBBS करके जब समाज में निकलता है, तो सरकार को उसे तीन मूलभूत सुविधाएं देनी चाहिए (क्यूंकि स्वास्थ्य समाज का विषय और जरूरत है)। पहला एक डॉक्टर के लिए नौकरी, दूसरा उसकी आगे की पढ़ाई और रिसर्च के उचित अवसर, और तीसरी उसका उचित आर्थिक मूल्यांकन। जो डॉक्टर खुद ही कॉन्ट्रैक्ट की सेवा प्रदान कर रहा हो, वो यही सोच रहा होगा कि वो कॉन्ट्रैक्ट छूटने के बाद क्या करेगा कि उसकी जीविका चल सके? ऐसे में वो कैसे आपको नियमित सेवा दे पायेगा। एक ऐसे तंत्र में जिसमें वो खुद ही स्थिर नहीं है? जैसे-तैसे कुछ वक़्त वो सेवा कहो या डाक्टर की जरूरत, वो कुछ वर्ष की कमाई का पैसा जोड़ कर, फिर से पढ़ने लग जाता है। अब स्पेशलिस्ट बनने की होड़ में ये सोचकर कि वो उस उदासीन तंत्र के लिए उपयोगी बन जायेगा तो उसका भविष्य सुधर जायेगा। तब तक वह लगभग 30 साल का हो जाता है। सरकार द्वारा दो चीजें उसे अब मिल जाती हैं, एक कागज़ का टुकड़ा जिसे लोग अक्सर डिग्री कहते हैं और दूसरा अनिश्चित काल के लिए संघर्ष। जी हाँ! स्पेशलिस्ट की जॉब देश में और भी कम है। लोग बड़ी आसानी से सरकारी अस्पताल में जाकर पूछते हैं, हड्डी वाला क्यों नहीं है? सर्जरी वाला क्यों नहीं है? जनाब आप भारत में हैं इसलिए सवाल करना सीख गए हैं। देश जितने कम डाक्टर आपकी सेवा के लिए बनाता है, उससे कहीं कम ये बाबू लोग उनके लिए नौकरी निकालते हैं। आपके टैक्स का पैसा सही जगह लगाने से बाबू लोगों का नुकसान भी तो होता है? 


खैर हम बात करते हैं आपके 30 वर्ष के  कोरोना योद्धा की, जो अब स्पेशलिस्ट बनकर तिराहे पर आकर खड़ा हो जाता है. पहला वो किसी सरकारी नौकरी को पकड़ ले, जिसका चांस सबसे कम होता है। दूसरा वो अपना छोटा क्लिनिक या जॉब कर ले, और तीसरा वो फिर से सुपर स्पेशलिस्ट का कोर्स करके खुद को फिर से तंत्र के और उपयोगी बनाये। है ना कमाल की मोटी बुद्धि। खुद को और 3-5 साल की पढ़ाई में इस उम्र में झोक देना, जब उसके साथ के दोस्त अलग अलग प्रोफेशन में बहुत आगे जा चुके होते हैं। एक और मज़ाक जो इन डाक्टरों के साथ होता है, इन्हें लगता है ये 10-15 साल पढेंगे तो बड़ी-बड़ी कंपनी इनको कैंपस जॉब देने आएँगी और पैकेज पूछेंगी। मासूम हैं साहब, टैलेंट और लेबर में फर्क तब करें ना, जब मेडिकल प्रोफेशन ने ऐसा किया हो? टैलेंटेड लोग जब लेबर करते है तब वो डाक्टर बन पाते हैं, मगर सिस्टम को तो आपकी लेबर चाहिए। सब खुशकिस्मत नहीं होते क्यूंकि देश में सुपर स्पेशलिस्ट की नौकरी है ही नहीं, जो है वो बस बाबू लोगों ने मेडिकल कॉलेज में संसाधनों की खरीद फरोख्त के लिए अपने हस्ताक्षर देने हेतु नाम मात्र रखा है। जनता और डाक्टर के हित में ना सोचे अगर आपने सुपर स्पेशलिस्ट सरकारी अस्पतालों में सुने हों!


खैर वो 30-35 वर्ष का योद्धा, अब या तो किसी निजी संस्थान को चला जाता है, या फिर खुद का क्लीनिक या हॉस्पिटल खोल कर आने वाले 5 सालों का नया संघर्ष का रास्ता चुन लेता है। आखिर मरता क्या ना करता? इसके बाद फिर शुरू होती है सरकारी बाबू से टेस्ट मैच की सीरीज, जो अक्सर डाक्टरों को इनिंग खेलने के लिए 50 से ज्यादा लाइसेंस, फ़ॉलो ऑन की तरह झेलने पड़ते हैं। भ्रष्टाचार को करीब से देखकर मरीजों के दर्द को समझना पड़ता है। यह जानते हुए कि मर्ज क्या है, कर्ज और फर्ज़ में उलझा हुआ वह कोरोना योद्धा आज कोरोना की महामारी में PPE, मास्क, सैनीटाइजर खरीदने के लिए उसी तंत्र पर आश्रित है, जो योद्धा को ये सब सामान ब्लैक में बेच रहे हैं। अब उस डाक्टर को मिलने वाला हर शख्स उससे कमाने की कोशिश करता है, पर उससे बस सेवा की ही उम्मीद करता है।


डाक्टर अब 40 की उम्र तक पहुंच चुका होता है जब शायद ही वो कोई नया स्किल सीख सके। शायद इसलिए कि उसने जीवन भर बस डॉक्टरी की होती है। ना ज्यादा वक़्त होता है ना ही ज्यादा संसाधन कि खुद को किसी और प्रोफेशन में आजमा सके। एक तंत्र कैसे एक नागरिक की ऊर्जा और वक़्त दोनों विधि पूर्वक नष्ट करता है, ये भारतीय स्वास्थ्य तंत्र से सीखें. 45 वर्ष की उम्र के बाद डॉक्टर का भविष्य तय हो जाता है। उसके आस पास के समाज के मुताबिक वो अपना क्लीनिक या अस्पताल चलाता है या फिर सरकार या निजी संस्थान के मुताबिक वो नौकरी करता है। आप ज्यादा उम्मीद रखते हैं उन डाक्टरों से, जो खुद अपना भविष्य 45 वर्ष के बाद आप में ढूंढ़ते हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार से आपको ज्यादा मिलेगा अगर एक बार सच में आप स्वास्थ्य को मुद्दा समझेंगे और उस पर सवाल पूछेंगे। 


मनरेगा की तरह डाक्टरों को रोजगार देने वाली सरकारें ना कभी आपके स्वास्थ्य के प्रति सजग थी और ना होंगी. बुरे वक़्त में आप डॉक्टर की तरफ देखते हो तो अच्छे वक़्त में उनके संघर्ष के सारथी क्यों नहीं बनते? कैसे सरकारें हर 5 साल बाद आपको बहकाने में कामयाब हो जाती है कि स्वास्थ्य चुनाव का मुद्दा नहीं हो सकता, धर्म चुनाव का मुद्दा है। अगर धर्म चुनाव का मुद्दा इस देश में है तो आज कोरोना संकट में मंदिर मस्जिद बंद क्यों और अस्पताल खुले क्यों हैं? आज आपको सोचना होगा कि लॉक डाउन के बाद भी ये वायरस यहाँ रहेगा। अब आपको क्या चाहिए? भविष्य के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा या उन्माद? 


एक डॉक्टर का जीवन संघर्षमय है अगर उसके सामने उन्नति के अवसर ना हों। मगर आज जो सरकारें और मीडिया डाक्टरों को कोरोना योद्धा बता रही हैं उनकी मानसिकता सिर्फ हमारी शहादत तक सीमित होंगी। यह तंत्र नहीं सुधरेगा जब तक जनता सही सवाल करना नहीं जानेगी। डाक्टर पर जब लोग हमले करते हैं उसका तो पता चलता है, मगर जो हमले सरकार करती है उसे इस देश में स्वास्थ्य नीति कहा जाता है। करिये सवाल सरकार से! 2013 में योजना थी 200 मेडिकल कॉलेज बनाने की! 6 लाख डाक्टर बनाने की! कहा हैं? क्यों हम स्वास्थ्य को चैरिटी बनाते चले गए?  स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार क्यों नहीं बनाया गया? 
कोरोना जैसी घातक बीमारियों का क्रम अब शुरू हुआ है। सस्ती TRP के लिए मीडिया तरह-तरह के स्लोगन चला रहा है जो आपको अभी शायद अच्छा लगे और ऊर्जा दे, पर दूरदृष्टि जरूरी है। लॉक डाउन को बस इतना समझें कि समस्या गेट पर है और थोड़ी कमजोर हुई है, वक़्त पर लिए गए स्टेप्स की वजह से। ये सब फिर बिखर जायेगा अगर आप सभी अपने नेताओं को मजबूर नहीं करेंगे कि हमें अब और अस्पताल चाहिए, मूर्ती नहीं। 


जब तक डाक्टर, समाज और मीडिया मिलकर इन हुकुमरान से सही सवाल नहीं करेगा, तब तक ये देश स्वस्थ नहीं हो सकता. 
कोरोना से हारने जीतने की वजाय, कोरोना के साथ रहना पड़ेगा, बशर्ते अब स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का वक़्त है। बुरे वक़्त में जो आपके साथ था, उसे याद रखें और डाक्टर पर हमला ना करें। उन्हें आज आपसे सम्मान चाहिए। चाहे मीडिया डाक्टरों को योद्धा कहे ना कहे, उनका जीवन युद्ध से कम नहीं होता।