बथानी टोला : ख्वाब कभी मरते नहीं
लेकिन संवेदना और विवेक के दावेदार जिन लेखकों को वहाँ पहुँचना चाहिए था, वे नहीं आए। बथानीटोला के निवासियों के साथ-साथ देश भर में भी साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने यह अपील की थी कि ‘सरकारी सम्मान ठुकराकर, साहित्य का सम्मान बचाएँ/ पुरस्कृत होने राजधानी नहीं, बथानी टोला आएँ’। सीधा तर्क यह था कि बिहार की सरकार इस बर्बर सामंती-सांप्रदायिक-वर्णवादी रणवीर सेना को प्रश्रय देती रही है, इस नाते लेखकों को इसका विरोध करना चाहिए।
क्या नीतीश कुमार या कोई भी सरकार बड़की खड़ाँव गाँव से विस्थापित 50 दलित-अल्पसंख्यक परिवारों को उसी गाँव में निर्भीकता और बराबरी के साथ रहने की गारंटी दे सकती है? सुशासन और जनतंत्र की तो यह भी एक कसौटी है। बथानी टोला एक ऐसा आईना है जिसमें सभी राजनीतिक दलों की असली सूरत आज भी देखी जा सकती है। दिन रात संघर्षशील जनता को अहिंसा का उपदेश देने वाली तमाम राजनीतिक पार्टियाँ जहाँ अपने ग़रीब विरोधी चरित्र के कारण हत्यारों के पक्ष में चुप्पी साधे हुए थीं, वहीं प्रशासन के दस्तावेजों में उग्रवादी और हिंसक बताई जाने वाली भाकपा-माले ने उस वक्त बेहद संयम से काम लिया था।