बथानी टोला जनसंहार के 24 वर्ष, ख्वाब कभी मरते नहीं!

बथानी टोला : ख्वाब कभी मरते नहीं


आज बथानी टोला जनसंहार के चौबीस साल हो गये। 1996 में उस नृशंस कत्लेआम के लगभग एक माह बाद मैं बथानी टोला गया था और वहाँ से लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के नाम बथानी टोला की गरीब-मेहनतकश जनता द्वारा हस्ताक्षरित एक अपील लेकर आया था। लेकिन कई बड़े लेखकों ने जिस तरह जनता का साथ देने के बजाय सम्मान और पुरस्कार का पक्ष लिया था और उसके पक्ष में तर्क दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाया। जिन कुतर्कों के साथ सारे गुनाहगार रिहा कर दिये गये, उन्हें भी भूल पाना संभव नहीं है। बथानी टोला इस देश की न्याय व्यवस्था और लोकतंत्र पर एक बड़े प्रश्न चिह्न की तरह है। जुलाई 2010 में बथानी टोला के शहीदों का स्मारक बनाया गया था। उसी मौके पर यह संस्मरणात्मक टिप्पणी समकालीन जनमत के लिए लिखी गई थी। पेश है उसके कुछ अंश। -सुधीर सुमन


बादल थे आसमान में। जिधर से हम गए थे उधर से सीधी कोई सड़क उस टोले में नहीं जाती थी तब, पगडंडियों से होते हुए बीच-बीच में घुटने भर पानी से गुज़रकर हम वहाँ पहुँचे थे। शोक, दुख और क्षोभ गहरा था। पूरे माहौल में अभी भी कुछ दिन पहले हुए क़त्लेआम का दर्दनाक अहसास मौजूद था। जले हुए घर और बची हुई औरतों की सिसकियाँ बाक़ी थीं। नौजवानों के तमतमाते चेहरे थे। वहाँ मैं देश के लेखकों के नाम उस अपील की प्रति लाने गया था, जिसमें जनसंहार में मारे गए लोगों के परिजनों ने उनसे बिहार सरकार के पुरस्कार को ठुकराने और बथानी टोला आने का आग्रह किया था।


शाम क़रीब आ रही थी। देर से मैंने कुछ खाया न था, संकोच में किसी से कुछ कह नहीं पा रहा था। तभी एक साथी मुझे मिट्टी के दीवारों और खपड़ैल वाले एक घर में ले गए और खाने को मुझे रोटी-सब्ज़ी दी गई। खाना खा ही रहा था कि किसी ने बताया कि पटना से कोई आया है। हाथ धोकर बाहर आया तो देखा कि राजधानी से एक सुप्रसिद्ध गांधीवादी लोगों को सांत्वना देने आए हैं, पता नहीं उन्होंने क्या कहा था कि एक नौजवान पार्टी कार्यकर्ता तेलंगाना किसान आंदोलन का हवाला देते हुए उनसे बहस कर रहे थे। उनके पास कार्यकर्ता के सवालों का कोई जवाब तो नहीं था, हाँ, मारे गए लोगों के प्रति सहानुभूति ज़रूर थी।


लेकिन संवेदना और विवेक के दावेदार जिन लेखकों को वहाँ पहुँचना चाहिए था, वे नहीं आए। बथानीटोला के निवासियों के साथ-साथ देश भर में भी साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने यह अपील की थी कि ‘सरकारी सम्मान ठुकराकर, साहित्य का सम्मान बचाएँ/ पुरस्कृत होने राजधानी नहीं, बथानी टोला आएँ’। सीधा तर्क यह था कि बिहार की सरकार इस बर्बर सामंती-सांप्रदायिक-वर्णवादी रणवीर सेना को प्रश्रय देती रही है, इस नाते लेखकों को इसका विरोध करना चाहिए।


इसके बावजूद हंस संपादक राजेंद्र यादव सहित कई लोगों ने बिहार सरकार से ‘शिवपूजन सहाय शिखर सम्मान’ लिया। मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि दलित-अल्पसंख्यक और महिलाओं के प्रति फ़िक्रमंद दिखने वाले राजेंद्र यादव की संवेदना को हो क्या गया था! सार्त्र जो उनके बड़े प्रिय है उन्होंने तो नोबेल जैसे पुरस्कार को सड़े हुए आलू का बोरा बताते हुए ठुकरा दिया था, मगर राजेंद्र जी से एक लाख रुपया भी ठुकराना संभव न हुआ!


वह पूरा दौर ऐसा था जब हिंदू पुनरूत्थानवाद से मुकाबले के लिए दलित-मुस्लिम और पिछड़ों की एकता की बात राजनीति में ख़ूब की जा रही थी और कुछ लोग इस एजेंडे को साहित्य में भी लागू कर रहे थे, यहाँ तक की कहानियाँ भी इस समीकरण के अनुकूल लिखवाई जा रही थीं, पर जहाँ इन समुदायों की ज़मीनी स्तर पर वर्गीय एकता बन रही थी उसे साहित्य में आमतौर पर नज़रअंदाज़ किया गया।


बथानी टोला, बिहार के भोजपुर ज़िले का एक छोटा-सा टोला भर नहीं रह गया है अब, जहाँ अख़बारों के अनुसार 11 जुलाई 1996 को गरीब-अल्पसंख्यक-दलित समुदाय के 8 बच्चों, 12 महिलाओं और 1 पुरुष को एक सामंती सेना ने एक कम्युनिस्ट पार्टी के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया की लड़ाई में मार डाला था। उसके सवाल बहुत बड़े हैं और वे सवाल भारत के गाँवों के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के जनतांत्रिक रूपांतरण की ज़रूरत से गहरे तौर पर जुड़े हुए हैं।


रणवीर सेना और उसके सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह ने तब अख़बारों में यह कहकर कि महिलाएँ नक्सलाइट पैदा करती हैं, कि बच्चे नक्सलाइट बनते हैं, बथानी टोला सहित तमाम पैशाचिक जनसंहारों को जायज ठहराने का तर्क दिया था। लेकिन गोहाना, खैरलांजी और मिर्चपुर सरीखे जो जनसंहार अब तक जारी हैं, वे किन नक्सलाइटों के ख़ात्मे के लिए हो रहे हैं?


ग्रामीण समाज में जिस वर्णवादी-सांप्रदायिक-सामंती वर्चस्व को क़ायम रखने के लिए अब तक उत्पीड़न और हत्या का क्रूरतम खेल जारी है, वह कैसे रुकेगा? कांग्रेस-भाजपा तो छोड़िए, क्या जद-यू, बसपा जैसी पार्टियाँ भी उस वर्चस्व को ही बरकरार रखने में शामिल नहीं हैं, क्या उनके शासन में जाति-संप्रदाय-लिंग के नाम पर उत्पीड़न और हत्याएँ नहीं जारी हैं?


सेकुलरिज्म के नाम पर तमाम किस्म के अवसरवादी गठबंधन बनते हमने लगातार देखा है। साहित्य में भी ख़ूब सेकुलरिज्म की बातें होती रही हैं। क्या इससे बड़ा सेकुलरिज़्म कोई हो सकता है कि मान-मर्यादा और सामाजिक बराबरी के साथ-साथ इमामबाड़ा, कर्बला और कब्रिस्तान की ज़मीन को भूस्वामियों के क़ब्ज़े से मुक्त करने की लड़ाई में मुसलमानों के साथ दलित, अतिपिछड़े और पिछड़े समुदाय के खेत मज़दूर और छोटे किसान भी शामिल हों?


यही तो हुआ था भोजपुर के उस इलाके में और उस गाँव बड़की खड़ाँव में, जो लड़ाई वहाँ के भूस्वामियों को बर्दास्त नहीं थी। उन्हें किसी मुस्लिम का मुखिया बनना बर्दास्त नहीं था। नईमुद्दीन, जिनके छह परिजन बथानी टोला जनसंहार में शहीद हुए, वे बताते हैं कि बड़की खड़ाँव गाँव में जब रणवीर सेना ने मुस्लिम और दलित घरों पर हमले और लूटपाट किए, तब 18 मुस्लिम परिवारों सहित लगभग 50 परिवारों को वहाँ से विस्थापित होना पड़ा। उसी के बाद वे बथानी टोला आए। वहाँ भी रणवीर सेना ने लगातार हमला किया।


जनता ने छह बार अपने प्रतिरोध के ज़रिए ही उन्हें रोका। पुलिस प्रशासन-सरकार मौन साधे रही। आसपास तीन-तीन पुलिस कैंप होने के बावजूद हत्यारे बेलगाम रहे और सातवीं बार वे जनसंहार करने में सफल हो गए। किसी ख़ौफ़नाक दुःस्वप्न से भी हृदयविदारक था जनसंहार का वह यथार्थ। 3 माह की आस्मां खातुन को हवा में उछालकर हत्यारों ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी थी।


पेट फाड़कर एक गर्भवती स्त्री को उसके अजन्मे बच्चे सहित हत्या की गई थी। नईमुद्दीन की बहन जैगुन निशां ने उनके तीन वर्षीय बेटे को अपने सीने से चिपका रखा था, हत्यारों की एक ही गोली ने दोनों की जिंदगी छीन ली थी। 70 साल की धोबिन लुखिया देवी जो कपड़े लौटाने आई थीं और निश्चिन्त थीं कि उन्हें कोई क्यों मारेगा, हत्यारों ने उन्हें भी नहीं छोड़ा था। श्रीकिशुन चौधरी जिनकी 3 साल और 8 साल की दो बच्चियों और पत्नी यानी पूरे परिवार को हत्यारों ने मार डाला था, वे आज भी उस मंजर को भूल नहीं पाते और चाहते हैं कि उस जनसंहार के सारे दोषियों को फाँसी की सज़ा मिले। (अब श्रीकिशुन जी हमारे बीच नहीं हैं।)


हाल में सेशन कोर्ट द्वारा उस हत्याकांड के 53 अभियुक्तों में से 23 को सजा सुनाई गई है। जबकि लोग चाहते हैं कि सारे अभियुक्तों को सज़ा मिले। ख़ासकर रणवीर सेना सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह को ऐसी सज़ा मिले ताकि वह भविष्य के लिए एक नज़ीर बन सके। (ब्रह्मेश्वर तो मारे गये, पर हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट के फ़ैसले को उलट दिया। सारे हत्यारे रिहा कर दिये गये। )


नीतीश कुमार ने सरकार में आते ही पहले अमीरदास आयोग को भंग किया जिसे आंदोलनों के दबाव में रणवीर सेना के राजनीतिक संरक्षकों की जाँच के लिए बनाया गया था।...नीतीश बाबू बिहार में महिला जागरण के प्रतिनिधि के बतौर ख़ुद को पेश करते हैं, उनसे एक सवाल बथानी टोला की उस राधिका देवी- जो सीने पर हत्यारों की गोली लगने के बावजूद जीवित रहीं और जिन्होंने धमकियों के बावजूद गवाही दिया- की ओर से भी है कि क्या उन्हें हत्यारों के संरक्षकों को बचाते वक्त जरा भी शर्म नहीं आती?


क्या नीतीश कुमार या कोई भी सरकार बड़की खड़ाँव गाँव से विस्थापित 50 दलित-अल्पसंख्यक परिवारों को उसी गाँव में निर्भीकता और बराबरी के साथ रहने की गारंटी दे सकती है? सुशासन और जनतंत्र की तो यह भी एक कसौटी है। बथानी टोला एक ऐसा आईना है जिसमें सभी राजनीतिक दलों की असली सूरत आज भी देखी जा सकती है। दिन रात संघर्षशील जनता को अहिंसा का उपदेश देने वाली तमाम राजनीतिक पार्टियाँ जहाँ अपने ग़रीब विरोधी चरित्र के कारण हत्यारों के पक्ष में चुप्पी साधे हुए थीं, वहीं प्रशासन के दस्तावेजों में उग्रवादी और हिंसक बताई जाने वाली भाकपा-माले ने उस वक्त बेहद संयम से काम लिया था।


रणवीर सेना को भी एक अर्थ में सलवा जुडूम के ही तर्ज पर शासकवर्गीय पार्टियों का संरक्षण हासिल था। लेकिन रणवीर सेना की हत्याओं की प्रतिक्रिया में जिस संभावित बेलगाम प्रतिहिंसा के ट्रैप में भाकपा-माले को फँसाने की शासकवर्गीय पार्टियों की कोशिश थी उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली, बल्कि बिहार सहित पूरे देश में माले ने उस दौरान उस जनसंहार के ख़िलाफ़ ज़बर्दस्त जनांदोलन चलाया और सांप्रदायिक-जातिवादी ताक़तों को अपनी खोह में लौटने को मजबूर किया।


किस तरह मेहनतकश जनता के भीषण ग़ुस्से को बिल्कुल नीचे तक राजनैतिक बहस चलाते हुए माले ने अराजक प्रतिहिंसा में तब्दील होने से बचाया और शासकवर्गीय चाल को विफल किया, वह तो एक अलग ही राजनैतिक संदर्भ है। हमारे तथाकथित संवेदनशील और विचारवान साहित्यकारों और शासकवर्गीय पार्टियों के लिए भले ही वे पराए थे, लेकिन संघर्षशील जनता और भाकपा-माले के लिए तो वे शहीद ही हैं।


भाकपा-माले ने 14 साल बाद बथानी टोला में उन शहीदों की याद में स्मारक का निर्माण किया। युवा मूर्तिकार मनोज पंकज द्वारा बनाया गया यह स्मारक कलात्मक संवेदना की ज़बर्दस्त बानगी है। इससे ग़रीब-मेहनतकशों के स्वप्न, अरमान, जिजीविषा और अदम्य ताकत को एक अभिव्यक्ति मिली है। इसमें पत्थरों को तोड़कर उभरती शहीदों की आकृति नज़र आती है। केंद्र में एक बच्चा है जिसने अपने हाथ में एक तितली पकड़ रखी है, जिसके पंखों पर हंसिया-हथौड़ा उकेरा हुआ है।


स्मारक पर शहीदों का नाम और उनकी उम्र दर्ज है, जो एक ओर क़ातिलों के तरफ़दारों को सभ्य समाज में सर झुकाने के लिए बाध्य करेगा, वहीं दूसरी ओर संघर्षशील जनता को उत्पीड़न और भेदभाव पर टिकी व्यवस्था को बदल डालने की प्रेरणा देता रहेगा। यही तो कहा था भोजपुर के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के नायक का. रामनरेश राम ने शहीदों के परिजनों और इलाक़े के हज़ारों मज़दूर-किसानों के बीच स्मारक का उद्घाटन करते वक्त कि एक मुकम्मल जनवादी समाज का निर्माण ही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


ज़ाहिर है दलित-उत्पीड़ित-अल्पसंख्यक-महिला-बच्चों के प्रति संवेदना का दावा करने वाला साहित्य भी इस ज़िम्मेवारी से भाग नहीं सकता। उसे पक्षधर तो होना ही होगा। ख़ैर, सत्ताओं के इर्द गिर्द नाचते साहित्य का जो हो। मुझे तो 14 साल बाद जून की तपती गर्मी में बथानी टोला पहुँचने और वहाँ पहुँचते ही संयोगवश पूरे प्राकृतिक मंजर के बदल जाने का दृश्य याद आ रहा है। जैसे ही हम वहाँ पहुँचे, वैसे ही उसी जमीन पर 10 मिनट जोरदार बारिश हुई, जहाँ बेगुनाहों का ख़ून बहाया गया था और ख़ौफ़ के जरिए एक अंतहीन ख़ामोशी पैदा करने की कोशिश की गई थी वहाँ जीवन का आह्लाद था, पक्षियों का कलरव था और आम के पेड़ के इर्द गिर्द बारिश में भिगते- नाचते बेख़ौफ़ बच्चे थे।


कल्पना करता हूँ कि स्मारक के शीर्ष पर नज़र आते बच्चे के हाथ में मौजूद तितली उन्हें ख़ूबसूरत ख्वाबों की दुनिया में ले जाती होगी, वैसे ख्वाब जिनमें हम तमाम आतंक, असुरक्षा, अन्याय और अभाव को जीत लेते हैं, जो ख्वाब साहित्य की भी ताक़त होते हैं।