क्या कोरोना काल के बाद वामपंथ और ग्रीन राजनीति का उदय तय है?

क्या कोरोना-काल के बाद वामपंथ और ग्रीन पॉलिटिक्स का उदय तय है?


मधुरेश कुमार


कोरोना काल के बाद एक नयी दुनिया सम्भव है! राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक उथल पुथल होगा यह तो तय था, लेकिन फ़्रान्स के लोकप्रिय राष्ट्रपति इमनुएल मैक्रोन क्या इतनी जल्दी मुश्किलों में पड़ जाएंगे? ताज़ा संपन्न हुए लोकल स्तर के चुनावों के नतीजों में फ़्रांस के हरित, समाजवादी और साम्यवादी दलों की भारी जीत किस नयी राजनीति का आग़ाज़ कर रही है? जनता का राज्य और राजनैतिक दलों से होता हुआ मोहभंग क्या संकेत दे रहा है?


फ़्रान्स में क्वॉरंटीन खुले हुए सात सप्ताह हो चुके हैं, 32000 लोगों की जान गयी और एक समय लगभग दो लाख लोग संक्रमित थे। लगभग दो महीने के क्वॉरंटीन के बाद अब जीवन वापस एक सामन्यता की ओर बढ़ रहा है। बार, रेस्तराँ, पार्क, स्कूल, थिएटर, जिम, मॉल आदि सब खुल चुके हैं, सड़कों पर हाथ में हाथ डाले प्रेमी युगल, और पार्कों में भागते कुत्ते और बच्चे, गर्मी की छुट्टियों के लिए ट्रेन स्टेशनों पर उमड़ती हुई भीड़- सभी कुछ सामान्य जनजीवन की वापसी को दर्शाते हैं।


जनवरी से ही मैं यहां हूं और अब तक यहां की राजनीति की दो-तीन पारियां देख चुका हूं, मज़दूरों की लम्बी राष्ट्रीय हड़ताल, कोरोना से जूझता समाज और देश, हाल में हुए जॉर्ज फ़्लॉयड प्रेरित विशाल प्रदर्शन और अभी के लोकल चुनाव। यहां की जीवन शैली, भाषा संस्कृति के बारे में लिखने को बहुत है, लेकिन इस बार यहां की राजनीति के ऊपर एक टिप्पणी।


एक महीने के भीतर यहां तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई हैं। पहला, पिछले सप्ताह हुए लोकल चुनावों में ग्रीन, सोशलिस्ट और मार्क्सवादी पार्टी के गठबंधन की अप्रत्याशित जीत, दूसरा फ़्रान्स के प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल का इस्तीफ़ा और तीसरा डेढ़ महीने पहले फ़्रान्स की ट्रेड यूनियनों, पर्यावरण संस्थाओं और संगठनों, लेफ़्ट और प्रोग्रेसिव NGOs का साथ आना और एक नया राजनैतिक प्रोग्राम/ दस्तावेज की घोषणा और उसका मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियों का तवज्जो देना और चर्चा करना।


इस आपदा ने देश-दुनिया में कई तरह के बदलाव किए हैं और सबको सोचने को मजबूर किया है मानव सभ्यता की आगे की दिशा के बारे में। वह राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक प्राणाली, जीवन शैली या फिर पूंजीवाद का चरित्र ही क्यों ना हो। ऐसा माना जा रहा है की यह एक सुनहरा मौक़ा है जब आमूलचूल परिवर्तन किए जा सकते हैं। पूँजीवादी कम्पनियाँ भी आपदा में फ़ायदा के तरीक़े ढूँढ रही हैं, जिसे नेओमी कलेन आपदा पूंजीवाद कहती हैं! प्रगतिशील समाज और आंदोलन भी नए रास्ते तलाशने और समीकरण बनाने में जुड़े हैं।


मैक्रोनिज़्म के ख़िलाफ़ फ़्रांस में 2017 के चुनावों के दौरान अचानक इमनुएल मैक्रोन एक नयी पार्टी, LREM (La Republique En Marche) के टिकट पर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ते हैं और न सिर्फ़ राष्ट्रपति चुने जाते हैं, बल्कि राष्ट्रीय संसद के चुनावों और यूरोपीय संसद के चुनावों में भी भारी बहुमत हासिल करते हैं। पांच साल के पूर्ण बहुतमत और शासन के बाद फ़्रान्स की जनता समाजवादी दल को नकारती है और बिलकुल एक नयी पार्टी जो दक्षिणपंथ के ज़्यादा क़रीब है, उसको चुनती है।


बहुत लोग मानते हैं कि उस दौरान अतिवादी पार्टी के नेता ली पेन को हराने के लिए विपक्ष के वोटर मैक्रोन के पीछे लामबंद हुए थे। इमनुएल मैक्रोन ने अपने कार्यकाल में अपनी बातों में समाजवादी और साम्यवादी और मध्य वोटरों को लुभाने के लिए रैडिकल बातें की हैं लेकिन असल में अपने सुधारवादी एजेंडे को ही आगे बढ़ाया है, जिसमें कुछ मुख्य मुद्दे हैं: पेन्शन, बेरोज़गारी भत्ता प्रणाली, स्वास्थ्य, ट्रांसपोर्ट आदि जैसी सार्वजनिक और सामाजिक सुविधाओं के निजीकरण की ओर काम करना।


इसके ख़िलाफ़ पूरे 2019 में अस्पतालों के डॉक्टर और कर्मचारी लम्बी हड़ताल पर रहे, मेट्रो और ट्रेन कर्मचारी भी लगभग 5 महीने हड़ताल पर 2018-19 में रहे और उनके समर्थन में देश की कई अन्य ट्रेड यूनियन भी लम्बे हड़ताल और प्रदर्शनों में शामिल हुईं। बहुचर्चित येल्लो वेस्ट / पीली बनियान आंदोलन (Mouvement des gilets jaunes), जो पूरे देश में नवंबर 2018 से चल रहे है और उसमें हरेक विचारधारा के लोग शामिल हैं और उनकी 42 सूत्री माँगों ने कई राजनैतिक सवाल खड़े किए हैं।


राष्ट्रपति मैक्रोन का कार्यकाल इस लिहाज़ से सामाजिक और राजनैतिक विरोध से भरा रहा है फिर भी उनकी प्रसिद्धि में कोई कमी नहीं रही है, लेकिन कोरोना के बाद पहली बार उनकी लोकप्रियता घटी है। और इसी से जुड़ा है प्रधानमंत्री एडवर्ड फ़िलिप और उनके मंत्रिमंडल का इस्तीफ़ा। (यहाँ प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल का सीधा चुनाव नहीं होता, राष्ट्रपति उन्हें मनोनीत करते हैं और ज़रूरी नहीं कि वह उनकी पार्टी के हों, विपक्ष के भी हो सकते हैं लेकिन जो राष्ट्रपति के एजेंडे को आगे बढ़ा सके।) उनका इस्तीफ़ा 2022 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों के पहले की तैयारी के मद्देनज़र देखा जाना चाहिए और बहुत कुछ निर्भर करेगा कि मैक्रोन अपने नए प्रधानमंत्री जॉन कास्टे के साथ मिलकर ग्रीन और सामाजिक एजेंडे पर अपने नीतियों से इतर कितना कुछ कर पाते हैं। क्या बदली परिस्थितियों में अपनी बाज़ारवादी नीतियां छोड़ पाते हैं?


कोरोना आपदा, राज्य की विफलता और मानवीय चरित्र कोरोना आपदा के दौरान और बाद में कहें तो पहली बार सरकार के ख़िलाफ़ गोलबंदी कारगर होती दिख रही है और उसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। 17 मार्च को यहां काफ़ी देर से राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय आपदा घोषित करते हुए पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की। यही नहीं, जब वायरस तेज़ी से फैल रहा था तब भी 15 मार्च को लोकल चुनाव का पहला दौर हुआ, बजाय उसे रद्द करने के। इस देरी के कारण और भी संख्या और मौतें ज़्यादा बढ़ी।


इस आपदा से निपटने के लिए अस्पतालों ने हड़ताल वापस लेते हुए काम शुरू किया, जहां स्वास्थ्यकर्मी उसके निजीकरण के विरोध में साल भर से हड़ताल पर थे और जिनके बजट में लगातार कटौती हो रही थी। सरकार के वादों और प्रचार के बावजूद अस्पतालों में बेसिक चीजें जैसे मास्क, PPE किट की भारी कमी रही, सूचना का न मिलना, सही समय पर हॉस्पिटल ना पहुँचना, दवाइयों की भारी क़िल्लत, प्रशासन के विभिन्न विभागों के बीच असमन्वय की स्थिति के कारण भी कई मौतें हुई, ख़ास कर के वृद्ध आश्रमों में, जहां लगभग 10,000 लोग मरे।


हालात इतने बदतर हुए कि अगर आप स्वस्थ हैं तो ग़नीमत है नहीं तो अस्पतालों की स्थिति दयनीय थी और जितने वेंटिलेटर और अन्य सुविधाओं की ज़रूरत थी, सरकार मुहैया नहीं करा सकी। फ़्रांस की स्वास्थ्य व्यवस्था हालाँकि कई देशों की तुलना में आज भी बेहतर है और सार्वजनिक क्षेत्र में है, और यहां की सामाजिक सुरक्षा प्रणाली भी काफ़ी सुदृढ़ है फिर भी हालात बेकाबू हो गए और मरीज़ों को दूसरे क्षेत्रों में और पड़ोसी देश जर्मनी में भी भेजना पड़ा।


सरकार ने इस आपदा में कैसा काम किया और जो फ़ैसले लिए उसकी जाँच के लिए अभी राष्ट्रीय संसदीय समिति के अलावा कई विभागीय जाँच समितियां भी बनी हैं और मीडिया और NGOs ने अपनी रिपोर्ट दी है, जिसके ऊपर काफ़ी चर्चा और शोर है। सरकार नें कई सराहनीय कदम भी उठाए और अगर राष्ट्रपति के शुरुआती वक्तव्यों को सुनें और मानें तो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर के राष्ट्रपति चार्ल्स दुगॉल की तरह देश को इस युद्ध से निपटने के लिए सबको साथ लेकर चलने की बात और नया, अलग और बेहतर फ़्रांस बनाने की बात उन्होंने की।


उन्होंने अपने भाषणों में यह भी माना कि उनकी पेन्शन, स्वास्थ्य, बेरोज़गारी भत्ता का निजीकरण जैसे सुधारवादी कार्यक्रम ग़लत थे और इन मूलभूत सुविधाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में ही होना चाहिए। सामाजिक सुरक्षा क़ानून के अलावे एक बेहतर और कारगर पैकेज के तहत उन्होंने छोटे और स्वरोज़गारों के लिए रियायत दी, टैक्स, बिजली और किराये में छूट दी, जो लोग स्कूल बंद होने के कारण घर से काम नहीं कर पा रहे थे उन्हें बेरोज़गारी भत्ता दिया, बेरोज़गारी भत्ते बरकरार रखे, आदि। बेरोज़गारी नियंत्रण में रहे, इसके लिए बड़ी कम्पनियों को उचित राहत की घोषणा भी उन्होंने की।


बाज़ारवादी नीतियों की पुनरावृत्ति और हार कोरोना से निपटने के लिए योजनाओं और नीतियों की संसद में चर्चा करना और दलों की सहमति लेना और लगातार प्रधानमंत्री के द्वारा जनता को बार-बार सभी निर्णयों से अवगत कराना, जिस कारण प्रधानमंत्री एड्वर्ड फ़िलिप की लोकप्रियता बढ़ी और साथ ही साथ सरकार के ऊपर लोगों का विश्वास भी।


लेकिन जैसे ही आपदा में थोड़े सुधार हुए हैं, सरकार की सुधारवादी नीतियों की दुबारा वापसी हुई है। सरकार ने बड़ी-बड़ी निजी कम्पनियों जैसे विमान बनाने वाली कम्पनी एयरबस, राष्ट्रीय विमान कम्पनी एयर फ़्रांस, कार निर्माता रेनॉल्ट आदि को खरबों रुपए सरकारी ख़ज़ाने से दिए हैं उनके घाटे की पूर्ति के लिए लेकिन फिर भी उन्होंने कारख़ाने बंद किए हैं और क़रीब 15,000 लोगों को काम से निकाला है। और तो और, इन कम्पनियों ने अपने काम और पद्धति में सामाजिक और पर्यावरणीय माँगो के आधार पर बदलाव करने से इनकार किया है।


इस कारण से सरकार के प्रति लोगों में असंतोष भी उतना ही बढ़ा है। यही कारण है कि लोकल स्तर के चुनाव के दूसरे चरण का चुनाव जो 28 जून को सम्पन्न हुआ उसमें ग्रीन/पर्यावरणीय और वाम दलों की भारी जीत हुई है और राष्ट्रपति मैक्रोन और दक्षिणपंथी और अतिवादी दलों का दबदबा कम हुआ है। चुनावों में लोगों की भागीदारी हालाँकि सिर्फ़ 40% ही हुई, जो बहुत कम है। कुछ इसे कोरोना के बाद की दर मानते हैं तो कुछ इसे सरकारों की विफलता को लेकर उनकी वैधता के ऊपर खड़ा सवाल और जनता की इस जनतंत्र से निराशा मानते हैं।


इन चुनावों के बाद पहली बार फ़्रांस में यहां के पाँच सबसे बड़े शहर पेरिस, मारसे, लील, नांत और स्ट्रास्बुर्ग में महिला मेयर चुन कर आयी हैं और टुलूस को छोड़ दें तो सभी बड़े शहरों पर ग्रीन-वाम दलों का क़ब्ज़ा है। इन नतीजों को एक तरह से राष्ट्रपति के कार्यकाल का रेफ़रेंडम नहीं माना जा सकता लेकिन जिन हालात में चुनाव हुए है ये परिणाम काफ़ी मायने रखते हैं। इन नतीजों से यह बात साफ़ नज़र आती है कि जनता कोरोना के बाद पर्यावरणीय और सामाजिक मुद्दों को लेकर बेहद जागरूक है और पूंजीवाद और बाज़ारवाद की नीतियों को ख़ारिज कर रही है और इसे कोई भी राजनैतिक दल नज़रंदाज़ नहीं कर सकता।


प्रगतिशील ताक़तों की आपसी एकजुटता और नया प्लान इस जीत के पीछे पर्यावरण संगठनों और देश में वामपंथी प्रगतिशील ताकतों द्वारा की गयी कड़ी मेहनत है, खासकर 2015 के अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय सम्मेलन COP के बाद। जब देश कोरोना संकट से जूझ रहा था, तभी यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि पूंजीवाद, दक्षिणपंथी बाजार आधारित सुधार और राष्ट्रपति मैक्रोन के नीतियों के आधार पर एक नए फ्रांस का निर्माण नहीं हो सकता, जिसका उन्होंने अपने भाषणों में बार-बार वादा किया था।


तभी विभिन्न संगठनों के एक साथ आने का सिलसिला शुरू हुआ जो अब तक अलग-अलग रहकर पार्टियों से लॉबी और एडवोकेसी कर रहे थे, अपने-अपने मुद्दों पर। इस नए गठबंधन में देश की बड़ी ट्रेड यूनियन जैसे CGT, सॉलिडेयर और FSU, ग्रीनपीस, ऑक्सफैम, फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ, यूथ फॉर क्लाइमेट जैसे संगठन और NGO भी शामिल हैं। आवास का अधिकार, अल्टरनेटिबा या कोपरनिक फाउंडेशन (एक उदार-विरोधी थिंक टैंक) आदि …


यह गठबंधन एक बड़ी पारी का संकेत देता है, जहां बड़े ट्रेड यूनियन जो श्रम सवालों पर अक्सर लामबंद हुए और पर्यावरणीय सवालों से कतराते रहे थे साथ आए और माना कि श्रमिकों के लिए महीने के अंत की लड़ाई और पृथ्वी के अंत की लड़ाई दोनों महत्वपूर्ण हैं। और तुरंत ही चार सप्ताह के भीतर उन्होंने वामपंथी, समाजवादी और ग्रीन दलों से बात करके एक राजनैतिक प्रोग्राम/ मसौदा तैयार किया है, जिसका नाम है क्राइसिस एग्ज़िट प्लान यानी “संकट से बाहर निकलने की योजना” और नारा दिया है “फिर कभी नहीं”– दुबारा धरती पर ऐसा संकट नहीं हो इसके लिए एक साथ आना होगा और संघर्ष करना होगा।


इस संकट से बाहर निकलने की योजना के कुछ प्रमुख तत्वों में कुछ आपातकालीन उपाय शामिल हैं, जैसे कि मुफ्त मास्क, अस्पतालों में 100,000 पेशेवरों की भर्ती, अवैध प्रवासियों का नियमितीकरण, महिलाओं के खिलाफ हिंसा रोकने के कारगर उपाय, आदि। कुछ मध्यम और लंबी अवधि के उपाय भी सुझाए गए हैं जिसमें शामिल है: न्यूनतम मजदूरी की वृद्धि 1700 यूरो प्रति माह, 40 से घटाकर 32 घंटे काम के सप्ताह, किराये की अदायगी न करने के कारण विस्थापन रोकना, गरीब देशों के कर्ज को रद्द करना, 2030 तक कोयला और जीवाश्म ईंधन पर आधारित बिजली का ख़ात्मा, सबसे अमीरों पर अतिरिक्त धन कर की बहाली, यूरोपीय स्तर पर वित्तीय लेनदेन पर कर की स्थापना, प्रदूषणकारी कंपनियों के लिए सार्वजनिक सब्सिडी का ख़ात्मा, छोटी दूरी की हवाई यात्रा पर रोक, जैविक खेती का विकास आदि शामिल हैं।


समाजवादी, वामपंथी और ग्रीन दलों ने इस प्लान के प्रति कुछ उत्साह ज़रूर दिखाया है, लेकिन वे पूरी तरह से इस पर हस्ताक्षर करने से कतरा रहे हैं। उनके राजनीतिक पुनरुद्धार के पीछे हालाँकि पीली बनियान, श्रमिकों और पर्यावरण आंदोलनों द्वारा की गयी कड़ी मेहनत और प्रदर्शनों की अहम भूमिका है फिर भी फ़िलहाल सभी दल अपनी रजनैतिक शक्ति का अलग-अलग गठबंधनों में मोलभाव कर रहे हैं। सत्ता में किसकी भागीदारी कितनी हो यह सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं, जैसा कि राजनैतिक पार्टियों का हमेशा से चरित्र रहा है।


इसलिए, अभी यह कहना मुश्किल है कि यह जीत स्थायी है या फिर 2022 के राष्ट्रपति चुनावों में राष्ट्रपति मैक्रोन और उनके नव-उदारवादी एजेंडे के लिए एक भयानक खतरा पैदा कर देगी। फिर भी दो बातें बिलकुल साफ़ हैं कि देश में वाम और प्रगतिशील ताकतों को एक साथ आने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है और दूसरी बात यह है कि नागरिक सभ्य समाज अपने हितों और एजेंडा के लिए के लिए अब राजनीतिक दलों पर निर्भर नहीं रह सकता है। वक्त आ गया है कि खुल कर राजनैतिक अखाड़े में अपने मुद्दों पर लड़ना होगा। यह सम्भव है, जैसा कि फ़्रांस के दूसरे सबसे बड़े शहर मारसे में एक डेढ़ साल पुराने नागरिकों के आंदोलन के नेता मिसेल रुबिरोल ने दक्षिणपंथी रिपब्लिकन पार्टी के 25 साल लंबे शासन को ख़त्म कर दिया।


(मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्‍वय (NAPM) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं।) 


जनपथ से साभार