प्रतिरोध संघर्ष की नई इबारत है किसानों का दिल्ली पड़ाव

भारत के वर्तमान किसान आंदोलन पर पुस्तिका

जनता के प्रतिरोध संघर्ष की नई इबारत है किसानों का दिल्ली पड़ाव

पुरुषोत्तम शर्मा

भारत की खेती और खाद्य सुरक्षा को कॉरपोरेट व बहुराष्ट्रीय निगमों का गुलाम बनाने वाले मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ देश के किसानों का ऐतिहासिक आन्दोलन आज पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया है. इस आन्दोलन के ऐजेंडे में तीन कृषि कानूनों के अलावा बिजली के निजीकरण और वायु प्रदूषण से जुड़े दो अध्यादेशों को वापस लेने की मांग भी है. इस तरह देखें तो किसानों का यह संघर्ष सीधे-सीधे केन्द्रीय सत्ता के खिलाफ है और भारत में आर्थिक सुधार के नाम पर कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों देश के संशाधनों को लुटाने के विरोध में खड़ा है. भारत की सत्ता के केंद्र दिल्ली को घेरे लाखों किसानों ने आजाद भारत के इतिहास में और खासकर भारत में बढ़ते फासीवादी निजाम के दौर में जनता के प्रतिरोध की एक नई इबारत लिख दी है. आन्दोलन में बैठे किसानों का मूड बता रहा है कि वे इस जंग को जीते बगैर वापस लौटने वाले नहीं हैं. वे जानते हैं, अगर वे जीत के बिना वापस लौटे तो उनके पास बचा वह छोटा सा जमीन का टुकड़ा भी कॉरपोरेट लूट लेंगे और देश की खाद्य सुरक्षा भी उनकी गुलाम बन जाएगी. 

यह आन्दोलन कब तक चलेगा इस बारे में अभी से कुछ भी कहना कठिन है. पर यह आन्दोलन अपनी जीत पर ही समाप्त होगा, यह निश्चित ही कहा जा सकता है. इस आन्दोलन को अपनी आँखों में कैद करना और इस आन्दोलन में आए सामान्य किसानों से मिलना एक अलग ही अनुभूति देता है. इस आन्दोलन की खासियत है कि इसको कोई एक नेता नेतृत्व नहीं दे रहा है, इस आन्दोलन का अपना कोई एक बैनर और एक झंडा भी नहीं है. अलग-अलग रंग के सैकड़ों झंडे और बैनर लिए किसानों का यह हुजूम एकदम एकताबद्ध, अनुशासित है. ख़ास बात यह है कि इस आन्दोलन में नई पीढ़ी की भागीदारी लगातार बढ़ रही है. जो पिछले 30 वर्षों से किसान आन्दोलन से लगभग किनारा ही किए रहती थी. किसानों की यह नई पीढ़ी इस आन्दोलन में भाग लेकर काफी उत्साहित है. उन्होंने अपने बुजुर्गों के मुख से और साहित्य में जो किसानों के विद्रोह और क्रांतियों की कहानियां सुनी और पढ़ी थी, उसी तरह का संघर्ष अपनी आखों से देखना और खुद उसका प्रत्यक्ष भागीदार बनना उन्हें गौरान्वित करा रहा है. इसी लिए यह आन्दोलन जितना लम्बा होता होता जा रहा है, इसमें युवाओं की भागीदारी उतनी ही बढती जा रही है. 

सच्चे लोकतंत्र की पाठशाला बना यह किसान आन्दोलन 

दिल्ली के दरवाजे पर पड़ाव डाला वर्तमान किसान आन्दोलन सच्चे लोकतंत्र की पाठशाला के रूप में विकसित हुआ है. इस आन्दोलन में भारत के भविष्य के लिए यह देखना काफी प्रेरणादायक है कि कैसे विभिन्न विचारधाराओं से बंधे लोग भी जनता और राष्ट्र के सामूहिक हितों के लिए एकताबद्ध रूप से काम कर सकते हैं. इसमें शामिल किसान संगठनों में वामपंथी से लेकर दक्षिण पंथी, मध्य मार्गी से लेकर स्वयं सेवी विचारधारा तक के सभी किसान संगठन शामिल हैं. इन सभी संगठनों में आन्दोलन की रणनीति को लेकर अपनी आंतरिक बैठकें होती हैं. फिर इसमें शामिल सभी बड़े समन्वयों की अपनी बैठकें होती हैं. पंजाब के 32 संगठनों की अलग से बैठक होती है. उसके बाद पंजाब के संगठनों और अन्य समन्वयों के साझे मंच की बैठक कर आम राय से अंतिम निर्णय लिया जाता है. साझे मंच के इस अंतिम निर्णय को आन्दोलन में शामिल सभी किसान संगठन स्वेच्छा और पूर्ण अनुशासन के साथ लागू करते हैं. इस तरह से देखें तो वर्तमान किसान आन्दोलन की रणनीति और कार्यनीति को सजाने में हर संगठन की अपनी बराबर की भूमिका है. यही कारण है कि लाख कोशिशों के बाद भी केंद्र सरकार किसान संगठनों के बीच फूट डालने में सफल नहीं हुई है.

इस आन्दोलन को न किसी नेता की गद्दारी से कोई फर्क पड़ने वाला है और न ही किसी संगठन के मुखिया के आन्दोलन से हट जाने से आन्दोलन बिखरने वाला है. सच तो यह है कि वर्तमान किसान आन्दोलन में किसान इतने जागरूक और एकताबद्ध हैं कि उनमें से किसी के संगठन व नेता ने अगर आन्दोलन से खिसकने की कोशिश की तो वह खुद अपने ही संगठन व आधार को खो बैठेगा. इसलिए कुछ ऐसे किसान संगठन भी हैं जिनके नेताओं पर लोगों को कम भरोसा था. ऐसे संगठन भी इस आन्दोलन में हैं जो सिर्फ एमएसपी के सवाल पर ही इस आन्दोलन में कूदे थे. पर आज किसानों के संघर्ष के जज्बे और बिना जीते न लौटने की उनकी संकल्प शक्ति के आगे वे नेता भी नतमस्तक हैं और तीनों किसान कानूनों की वापसी की मांग पर अडिग हैं. केंद्र सरकार ने एक तरफ वार्ता का नाटक करने और दूसरी तरफ किसान नेताओं में फूट डालने, उन्हें अलग-अलग कर समझाने और आन्दोलन को खालिस्तानी, विपक्ष का उकसाया और माओवादी तक बताने की कोशिशें की ताकि आन्दोलन में बिखराव पैदा हो जाए. पर वे किसानों और उनके नेतृत्व की चट्टानी एकता को तोड़ने में पूरी तरह असफल हुए. 

इस किसान आन्दोलन की तुलना किसी और आन्दोलन से नहीं की जा सकती है 

इस आन्दोलन की तुलना कुछ लोग “पगड़ी संभाल जट्टा” आन्दोलन से कर रहे हैं, तो कुछ इस आन्दोलन की तुलना महेंद्र सिंह टिकैत के वोट क्लब आन्दोलन से कर रहे हैं. पर इस आन्दोलन की तुलना उन आंदोलनों से नहीं की जा सकती है, क्योंकि उन आंदोलनों की मुद्दों और प्रभाव क्षेत्र को लेकर एक सीमा थी. पर आज का यह किसान आन्दोलन देश के संशाधनों की कारपोरेट लूट के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी चरित्र लिए है. जनता के विभिन्न हिस्सों का व्यापक समर्थन आंदोलित किसानों को मिल रहा है. उसका कारण है कि निजीकरण और कॉरपोरेटीकरण के हमले की जो मार देश का मजदूर वर्ग, व्यापारी और मध्य वर्ग झेल रहा है, उसके खिलाफ उनका संघर्ष धारदार नहीं बन पाया है. तीन कृषि कानूनों और बिजली सुधार व वायु प्रदूषण से सम्बंधित दो अध्यादेशों के जरिये मोदी सरकार ने जो बड़ा हमला भारत की कृषि और खाद्य सुरक्षा पर किया है, उसी तरह का बड़ा हमला निजीकरण की मुहिम व 44 श्रम कानूनों को चार श्रम कोडों में बदल कर मजदूर वर्ग पर भी किया है. मगर देश का ट्रेड यूनियन आन्दोलन इनके खिलाफ अभी भी रक्षात्मक तथा सांकेतिक आंदोलनों से आगे नहीं बढ़ पाया है. लेकिन अब किसानों के इस जबरदस्त प्रतिरोध संघर्ष को देख इन तबकों को भी एक नई ऊर्जा मिली है और समाज के ये पीड़ित तबके इस आन्दोलन में अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति होते देख रहे हैं.

यह आन्दोलन न सिर्फ देश में जबरन लादी जा रही कॉरपोरेटीकरण की नीतियों के खिलाफ है, बल्कि भारत जैसे गरीबों की विशाल जनसंख्या वाले देश की खाद्य सुरक्षा को दाँव पर लगाने के भी खिलाफ है. इसलिए चाहे इस आन्दोलन के मंच का इस्तेमाल करने से देश की तमाम राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को रोका जा रहा हो, पर यह आन्दोलन भारत के किसानों का राजनीतिक आन्दोलन है. यह आन्दोलन आर्थिक सुधार के नाम पर देश को कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय निगमों का गुलाम बनाने के खिलाफ लक्षित है. इसीलिए यह पहली बार है कि न सिर्फ किसान केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ लड़ रहे हैं, बल्कि भारत में कारपोरेट के चेहरे बने और प्रधानमन्त्री मोदी के चहेते अम्बानी-अदानी समूहों के खिलाफ भी सीधे संघर्ष कर रहे हैं. भारत के बुद्धिजीवी जिसे “क्रोनी कैपिटलिज्म” कह रहे थे, किसानों ने उसे “अम्बानी-अदानी कम्पनी राज” की सरल परिभाषा में बदल दिया है. मीडिया और बौद्धिक जगत इस आन्दोलन में भाग ले रहे सामान्य किसानों में अपने मुद्दों और उनके समाधान को लेकर पैदा हुई स्पष्ट समझ को देखकर हैरान हैं. वे इस बात से भी हैरान हैं कि ज्यों-ज्यों किसानों को सड़क पर ज्यादा दिन बीतते जा रहे हैं उनका उत्साह ठंडा होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है. आन्दोलन में हर आने वाला दिन आन्दोलनकारियों की संख्या में बढोतरी को लेकर आ रहा है.

पंजाब से जो किसान इस आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं, उनमें ज्यादातर परिवारों ने मुजारा (भूमिहीन किसान) आन्दोलन के जरिये ही खेती की जमीन प्राप्त की है. पंजाब में जिसमें आज का हरियाणा भी है, के मुजारा (भूमिहीन) किसानों ने लाल झंडे के नेतृत्व में जमीन के लिए संघर्ष में पटियाला राज की सेना के तोपों से मुकाबला किया था. मुजारा किसानों ने 1942 से 1952 के बीच चले मुजारा आंदोलन के दौरान राजाओं और बड़े जागीरदारों की 18 लाख एकड़ जमीन पर कब्जा किया था और उसे मुजारों के नाम दर्ज कराने में सफलता पाई थी. उसी मुजारा आन्दोलन में मिली जमीन के अब खेती के कॉरपोरेटीकर की नीतियों के चलते फिर छिनने का ख़तरा मंडरा रहा है, जिसने पंजाब और हरियाणा के किसानों को ज्यादा उद्देलित किया है. मुजारा आन्दोलन की स्मृतियाँ अभी पंजाब में पुरानी नहीं पड़ी हैं. शहीदों के स्मारक बने हैं और उनकी गाथाएं नई पीढी ने सुनी हैं. पंजाब व हरियाणा के गाँवों में अभी भी उस दौर को देखे कुछ बुजुर्ग बचे हैं. पंजाब किसान यूनियन में मुजारा आन्दोलन के युवा किसान नेता मानसा जिले के कृपाल सिंह बीर जो अब 92 वर्ष से ऊपर के हो चुके हैं, अभी भी लगातार किसान आंदोलनों की अगुवाई कर रहे हैं.

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