गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों की खाद्य सुरक्षा की लड़ाई भी लड़ रहे हैं किसान - दो

 गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों की खाद्य सुरक्षा की लड़ाई भी लड़ रहे हैं किसान - दो

 पुरुषोत्तम शर्मा

किसान आंदोलन के एजेंडे में कांट्रेक्ट खेती कानून की मार सबसे पहले कैसे दलितों, भूमिहीनों और गरीब किसानों पर पड़ेगी, इसे जानने बाद आइए अब दूसरे कानूनों पर चर्चा करते हैं। कृषि मंडी से संबंधित जिस कानून को किसानों की आजादी और फायदे का कानून बताया जा रहा है, उसका देश के गरीबों, दलितों, आदिवासियों, खेत मजदूरों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ने जा रहा है? यह जानना आज बहुत ही जरूरी है।

इस कानून के तहत सरकारी कृषि मंडियों के समानांतर अब प्राइवेट कृषि मंडियों की व्यवस्था की जाएगी। अब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से सरकारी मंडियों में राज्य सरकारों द्वारा मुख्यतः गेहूं, धान की खरीद की जाती थी। इस खरीद के लिए राज्य सरकारों को केंद्र द्वारा बैंकों के माध्यम से कैश क्रेडिट दिया जाता है। राज्यों द्वारा खरीदे गए इस खाद्यान को बाद में केंद्र सरकार भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के जरिये खरीद कर एफसीआई के गोदामों में जमा कर लेती है। फिर देश में चल रही सार्वजनिक वितरण प्रणाली  (पीडीएस सिस्टम) के जरिये इसी आनाज को गांव-गांव, कस्बा-कस्बा तक सरकारी गल्ले की दुकानों के माध्यम से सस्ते में जरूरतमंद गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों को बांटा जाता है।

अब नए कानून में सरकारी मंडियों के बाहर समानांतर प्राइवेट मंडियों की व्यवस्था कर दी गई है। इसके बाद केंद्र सरकार राज्यों को फसल खरीद के लिए कैश क्रेडिट देना बंद कर देगी, और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के जरिये राज्यों द्वारा खरीदे गए खाद्यान का उठान बंद कर देगी। ऐसी स्थिति में सरकारी मंडी होने और न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के बावजूद सरकारी मंडियों में किसानों के खाद्यान की खरीद पूरी तरह बंद हो जाएगी। क्योंकि राज्य सरकारों के पास न तो इतनी खरीद के लिए पैसा होता है और न खरीदे गए खाद्यान की खपत के लिए बाजार। ऐसे में सरकारी मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के बावजूद किसान अपने उत्पाद को बाहर निजी कंपनियों को बेचने को मजबूर होगा, जिसकी काफी कम कीमत मिलेगी।

इस प्रक्रिया में सारा खाद्यान कारपोरेट कंपनियों के गोदामों में चला जाएगा। भारतीय खाद्य निगम को केंद्र सरकार नीलाम कर देगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली बंद कर राशन की दुकानों से मिलने वाले सस्ते खाद्यान की आपूर्ति गरीबों को बंद कर दी जाएगी। उसकी एवज में गरीबों के खाते में नकद खाद्य सब्सिडी डाली जाएगी। जो उनकी खाद्य जरूरत से काफी कम होगी। इस तरह देश की 70 प्रतिशत गरीब आबादी, जिनमें दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों, गरीब किसानों और शहरी गरीबों की बहुसंख्या है, अन्न के लिए क्रूर बाजार के हवाले कर दी जाएगी। खाद्यान की कीमतें आम गरीब की पहुंच में नहीं रहेंगी।

वर्तमान किसान आंदोलन के एजेंडे में प्रमुख तीन कृषि कानूनों में से तीसरा है "आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन कानून 2020" को वापस कराना। केंद्र सरकार ने इस नए कानून के जरिये लोगों के जीवन के लिए आवश्यक खाद्यान्न में से आलू, प्याज, दालें और खाद्य तेल को आवश्यक वस्तु कानून के दायरे से हटा दिया है। दूसरी तरफ यह व्यवस्था कर दी है कि कभी बड़ी आपदा को छोड़ कर यह कानून अब देश में लागू ही नहीं रहेगा। तो क्या इस कानून का किसानों से कोई सीधा लेना-देना है, शायद नहीं! 

इस कानून का तो सीधा लेना-देना इस देश के 70 प्रतिशत गरीबों, दलितों, भूमिहीनों व आदिवासियों के जीवन से है। इस कानून के लागू होने के बाद खाद्य वस्तुओं की कीमतों और भंडारण पर अब तक सरकार का जो नियंत्रण था, वह खत्म कर दिया गया है। इससे बड़ी बात यह है कि इस कानून के जरिये कंपनियों और जमाखोरों को अपने भंडारों में असीमित खाद्यान का भंडारण करने की छूट मिल गई है। इस छूट से वे बाजार से खाद्य वस्तुओं को गायब कर देंगे और फिर उसकी मनमानी कीमत वसूलेंगे। यानी कि गरीबों के जीवन के लिए आवश्यक खाद्य वस्तुओं को सरकार ने इस कानून के जरिये अब उपभोक्ता वस्तु में बदल दिया है। इसके बाद जिस तरह से अन्य उपभोक्ता वस्तुएं गरीबों की क्रय क्षमता से बाहर हैं उसी तरह अब खाद्य वस्तुवें भी इतनी महंगी हो जाएंगी कि गरीब की थाली से अन्न भी गायब होने लगेगा।

इस तरह देखें तो ये तीनों कृषि कानून जिनके खिलाफ आज किसान सड़कों पर लड़ रहे हैं, कारपोरेट व बहुराष्ट्रीय कंपनियों से किसानों की खेती किसानी को बचाने के लिए ही नहीं, बल्कि इस देश के 70 प्रतिशत गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा की गारंटी के लिए भी है। इस लिए किसानों के इस ऐतिहासिक आंदोलन की जीत इस देश के गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों की अब तक बची खुची आजीविका और खाद्य सुरक्षा की गारंटी की लड़ाई को आगे बढ़ाएगी। जो लोग और संगठन देश के गरीबों, दलितों, भूमिहीनों, आदिवासियों पर इन कानूनों की पहली मार को नहीं देख पा रहें हैं, उन्हें अपनी आंखों की जांच करा लेनी चाहिए।