किसान आंदोलन और लोकतंत्र
गोपाल प्रधान
आखिरकार देश के प्रधानमंत्री ने किसान आंदोलन के सवाल पर जो वैचारिक अभियान शुरू किया उससे ही बात शुरू करना उचित होगा। कारण कि देश के मुखिया होने के नाते उनके श्रीमुख से निकले शब्द समूह का विशेष महत्व होता है। उनके भाषण से उपजा आंदोलनजीवी नामक शब्द खास तौर पर चर्चित हुआ। इस शब्द के चुनाव में उनकी रुचि प्रकट हुई है। जानने की बात है कि आंदोलन का संबंध दोलन से है और इसे जीवन का प्रमाण माना जाता है। किसी भी शांत पड़े प्राणी के जीवित रहने की परीक्षा उसके हिलने डुलने से होती है। इस तरह आंदोलन को जैविकीय रूप से जीवित रहने का सबूत तो कहा ही जा सकता है, लेकिन उससे भी जरूरी चीज है स्वतंत्र विचार बनाने और उसे व्यक्त करने की आदत जिसके खत्म होने से जैविकीय जीवन के बावजूद मनुष्य मृतक की तरह ही गिना जायेगा। मतभेद को किसी आंदोलन के रूप में व्यक्त करना न केवल लोकतांत्रिक शासन के लिए सेहतमंदी की बात है बल्कि बौद्धिक वातावरण के लिए भी आवश्यक है। संस्कृत में कहा गया है ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ अर्थात मनुष्य की विशेषता ही है मतिभिन्नता। यदि इस पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाये तो मानवजाति की विशेषता समाप्त हो जायेगी।
सिद्ध है कि किसान आंदोलन का सवाल अब केवल खेती के लाभकर होने से ही जुड़ा नहीं रह गया है। इसकी सफलता पर लोकतंत्र और बौद्धिकता की उपस्थिति भी टिकी हुई है। पहले लोकतंत्र की ही बात करते हैं क्योंकि उसकी मौजूदगी अधिक ठोस है। लोकतंत्र को महज राजनीतिक पद्धति समझने वाले इसे चुनाव में मतदान तक सीमित करके देखते हैं। यह भी समझने का प्रयास नहीं किया जाता कि मतदान के लिए मत होना जरूरी है। मत केवल कुछेक नारों या वादों से नहीं बनता। ये नारे या वादे किसी भी राजनीतिक विचारधारा को सटीक तरीके से सूत्रबद्ध करते हैं। लोगों के मत के बनने में किसी राजनीतिक दल के समूचे आचरण का योगदान होता है। सार्वजनिक दुनिया में विचारधारा व्यक्तियों के समूह विशेष के माध्यम से जाती है। इस आधार पर लोग किसी मत को अपनाते हैं। दान उस मत की एक बाह्य अभिव्यक्ति होती है और वह केवल बटन दबाने या मुहर लगाने तक महदूद नहीं होती।
वैसे मतदान का अधिकार भी किसी की कृपा से प्राप्त नहीं हुआ। इसकी प्राप्ति और मौजूदगी संघर्ष पर निर्भर है। प्रसिद्ध इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने विस्तार से बताया है कि किस तरह कदम दर कदम मताधिकार का विस्तार हुआ और इस विस्तार में मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक चार्टिस्ट आंदोलन का हाथ रहा है। उस आंदोलन के चलते साल दर साल मताधिकार के मामले में संपत्ति और शिक्षा संबंधी शर्तों में ढील दी गयी जिसके कारण नये नये लोग मताधिकार हासिल करते रहे। बहुत बाद में जाकर सभी बालिग पुरुषों को मताधिकार मिल सका। मताधिकार के लिए आंदोलन का अगला चरण बालिग स्त्रियों के मताधिकार के लिए संचालित लड़ाई थी। इसे चलाने वालों को सफ़्रेजेट कहा गया। इसमें खास बात यह थी कि न केवल चुनाव में मताधिकार का सवाल उठाया गया बल्कि समाज की सारी संस्थाओं में स्त्री प्रतिनिधित्व का दावा किया गया। ये अधिकार लड़ाई से हासिल तो हुए ही, मताधिकार के विस्तार से पूंजीवादी व्यवस्था प्रसन्न नहीं हुई क्योंकि पूंजीवाद की आंतरिक संरचना में लोकतंत्र की कोई जगह नहीं होती । मताधिकार और मतदान का संबंध प्रतिनिधित्व से होता है और प्रतिनिधित्व फैसलों को प्रभावित करने के लिए जरूरी होता है। कानून बनाने और शासन चलाने वाले निकायों में जनता का प्रभावी प्रतिनिधित्व नीचे की तमाम संस्थाओं में प्रतिनिधित्व के बिना अधूरा रहता है। शिक्षा संस्थानों में अध्यापक और विद्यार्थी संघों से लेकर कारखानों की ट्रेड यूनियनों तक समूचे समाज में विभिन्न रूपों में जो लोकतांत्रिक आचरण जारी होता है उसके आधार पर ही राष्ट्रीय स्तर पर प्रातिनिधिक संस्थाओं की मजबूती कायम रहती है।
मत की औपचारिक अभिव्यक्ति के साथ उसकी थोड़ी मुखर अभिव्यक्ति भी हो सकती है। इस मुखर अभिव्यक्ति को हम आंदोलन कह सकते हैं। मत की इस आंदोलनात्मक मुखर अभिव्यक्ति से सभी तानाशाहों को एतराज होता है। तानाशाह मूल रूप से लोकतांत्रिक आचरण का विरोधी होने के चलते आम तौर पर आंदोलन को तो बदनाम करते ही हैं, कई बार सहानुभूति नामक मानवीय भावना पर भी भारी आपत्ति जाहिर करते हैं। असल में सहानुभूति के इसी मानवीय गुण के कारण हम नितांत अपरिचित की भी मदद के लिए हाथ बढ़ा देते हैं। अत्याचारियों को इससे कठिनाई होती है क्योंकि इससे उनका समर्थन घटता जाता है। ध्यान देने की बात है कि पिछले लगभग सभी अवसरों पर सत्ता के वर्तमान समर्थकों ने इसी पहलू पर एतराज जाहिर किया। उनके लिए दलित को केवल दलित सवाल पर बोलना चाहिए। अल्पसंख्यकों को अन्य किसी भी सवाल पर बोलने का हक नहीं है। जब किसानों ने कारागार में बंदी लोगों का सवाल उठाया तो खुद प्रधान सेवक ने बेकार की बात उठाने की शिकायत की। सच यह है कि कोई भी आंदोलनकारी व्यक्ति आंदोलन के लिए सामाजिक सहानुभूति प्राप्त करना बेहद जरूरी समझता है। इसीलिए आंदोलनों के भीतर न केवल अन्य तबकों के सवालों के साथ जुड़ने की भावना होती है बल्कि बहुधा यह एकजुटता देश की सीमाओं के पार भी चली जाती है।
लोकतंत्र के सवाल पर इस समय जो बहस हो रही है उसके साथ अनेक प्रसंग जुड़ गये हैं। हम सबने इस परिघटना को शाहीन बाग में देखा और इस आंदोलन में भी देख रहे हैं कि वर्तमान शासकों ने जिस हद तक लोकतंत्र के प्रतीकों की उपेक्षा की उसी हद तक आंदोलनकारियों ने उन्हें अपना लिया। संविधान से लेकर तिरंगे तक देश के लोकतंत्र के साथ जुड़े प्रत्येक प्रतीक को जिस तरह उन विद्रोहियों ने सीने से लगाया उससे देश पर हक जताकर उन्होंने लोकतंत्र को हासिल करने की लड़ाई की याद ताजा कर दी। इसने लोकतंत्र को आकार देने में वामपंथ और मेहनतकश जनता की भूमिका को लम्बे समय के बाद मजबूती से रेखांकित किया। इसे समूची दुनिया में लोकतंत्र की अवहेलना करनेवाले शासकों के विरोध में खड़ी जनता की ओर से देश के संचालन में लोकप्रिय दावेदारी के बतौर देखा जाना चाहिए। इसके मूल में वह इतिहास है जिसमें सामंती समाज में मताधिकार से लेकर आलोचना की जगह बनाने तक एक एक इंच जमीन जनता ने अपने बलिदानी संघर्ष से हासिल की थी। कहते हैं कि जब संसद नहीं बनी थी तो ट्रेड यूनियनें नीचे से लोकतंत्र के आचरण का लोकप्रिय मंच का काम करती थीं। इस समय भी जब इन कानूनों पर बहस के मामले में संसद का गला घोंट दिया गया है तो किसान महापंचायतों ने बहस और बातचीत की वैकल्पिक जगह उपलब्ध करा दी है। यूं ही नहीं है कि देश का संविधान देश की संप्रभुता को ‘हम भारत के लोग’ में अवस्थित करता है। उन्होंने लड़कर लोकतंत्र न केवल हासिल किया बल्कि उसकी बुनियाद भी मजबूत की और आज भी उसे गढ़ रहे हैं।
दिल्ली की सरहदों पर महीनों से डटे हुए किसानों की भावना को समझने में राजधानी के मध्य वर्ग को दिक्कत महसूस हो रही है। पिछले कई सालों से सरहद का मतलब देश के उत्तरी या पश्चिमी छोर पर अन्य देशों के साथ सटने या अलगाने वाली वह काल्पनिक रेखा रह गया है जिसकी रक्षा में सेना तैनात रहती है। यह मतलब दिमाग में बिठा देने में सेना या सैनिक की जगय युद्धप्रेमी वर्तमान शासन का भी योगदान है। संयोग से अभी पूरबी या दक्षिणी छोर के साथ यह खेल शुरू नहीं हुआ है हालांकि बीच बीच में इसकी कोशिश कभी कभार होती है। तो दिल्ली ने कभी बार्डर का वह अर्थ समझा ही नहीं था जो इस आंदोलन ने समझना जरूरी बना दिया। उनके लिए बार्डर केवल टोल वसूल करने की जगह हुआ करता था। अभी कुछ दिन पहले सड़क पर कील कांटे लगाकर और कंटीले तारों के गोल छल्ले सजाकर पुलिस ने बार्डर की मूल झलक दिखाने का अभ्यास भी किया है। बहरहाल रोज अखबार में पढ़कर सरहद का नया अर्थ कुछ कुछ स्पष्ट होने लगा। बहुत दिन सुनने के बाद एक झलक पाने के लिए सिंघु बार्डर गया। पता चला किसी भी वाहन पर किसान धरना की जगह पूछिये सही जगह पहुंचा दिये जायेंगे। यह सुनकर ही आश्वस्त हुआ कि आम लोगों में किसान प्रदर्शन के विरोध में जहर बोने में सत्ता सफल नहीं हो सकी है। इसके पहले रागिनी तिवारी का वीडियो संदेश सुनकर थोड़ा आशंकित रहा था लेकिन आम वाहन चालकों के सहयोग की नयी सूचना पाकर काफी निश्चिंत हुआ। दो अन्य मित्रों के साथ धरना स्थल पहुंचा।
थोड़े दिन पहले ही सुना था कि गणतंत्र दिवस पर घोषित परेड को रोकने के लिए पुलिस ने अवरोध बना और लगा लिये हैं। किसी ने गिनकर पंद्रह स्तरीय रुकावट का जिक्र किया था इसलिए नजदीक जाकर गिना। एक को दूसरे के साथ मोटी जंजीर में बांधकर सचमुच कंक्रीट की पंद्रह भारी कमर भर ऊंची दीवारें लगायी गयी थीं। चिंता से पूछा तो रवि ने बताया कि जब इन विशाल ट्रैक्टरों का हुजूम चलेगा तो यह सब तिनके की तरह बिखर जायेगा। सामने भीमकाय घोड़े बंधे हुए थे। कहते हैं बाबा घोड़ा पालते थे। कभी एक रिश्तेदार के घर उठाकर लोगों ने घोड़े पर बिठाया भी था लेकिन इतने बड़े घोड़ों को नजदीक से कभी देखा न था। आते हुए जो एक का हिनहिनाना सुना था वह अब भी कान में बजता है। पता चला निहंग लोग इन बांके घोड़ों पर सवारी करते हैं। ठीक पास में ग्रंथ साहिब। जो आता, मत्था टेकता। एक बाबा जमीन पर बैठे हाथ उठाकर बच्चों को आशीर्वाद दे रहे थे। तमाम स्त्रियां बच्चों के साथ मजमा लगाये थीं। लगा पूरा पंजाब उमड़कर चला आया है। भारत का कोई भी प्रांत ऐसा नहीं जिसमें सांस्कृतिक विविधता न हो। पंजाब के मामले में तो यह विविधता धार्मिक स्तर पर कुछ अधिक ही है । हिंदू घरों में सिख होना कोई अचरज की बात नहीं । इसके अतिरिक्त आजादी के साथ मिले भारत विभाजन ने उसे चीरकर दो हिस्सों में बांट दिया। पहले से ही पंजाब में इस्लाम की मजबूत सांस्कृतिक उपस्थिति रही है। भूगोल के अलग हो जाने के बावजूद जनजीवन का बड़ा हिस्सा इस मुश्तरका जमीन पर खड़ा है। सिखों की बहुतायत से खालिस्तान समर्थक होने का आरोप लगाना आसान था। मलेरकोटला से आये मुसलमान भाइयों को देखकर उसे सांप्रदायिक मोड़ देने की कोशिश भी हुई। कभी कृष्णा सोबती का कथन देखा था कि दिल्ली के पंजाबी घरों की औरतों को देखकर पंजाब की औरतों की सामाजिक हैसियत का अनुमान लगाना गलत होगा। स्त्रियों की इतनी भारी मौजूदगी सर्वोच्च न्यायालय की समझ में भी नहीं आयी और उसे वे जबरन लायी महसूस हुईं। दस बारह किलोमीटर तक सब कुछ मुफ़्त मिल रहा था। भोजन से लेकर किताब और दवाओं तक बिना किसी मूल्य के उपलब्ध था। पंजाब के लंगर तो मशहूर हैं ही, हरियाणा से छाछ भी लायी जा रही थी। सत्ता ने दोनों प्रांतों को बांटकर आपस में लड़ाने की भरपूर कोशिश की। सतलज नहर के पानी का सवाल उठाकर झगड़ा कराना चाहा लेकिन उन्हें निराश करते हुए हरियाणा ने दिल खोलकर पंजाब का साथ दिया। किसान जनता की इस एकता ने पंजाब और हरियाणा की एकता से आगे जाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक को अपने आगोश में ले लिया है। आंदोलन की ऊर्जा के चलते ही नरेश टिकैत ने मुजफ़्फ़रपुर के दंगों के लिए मुस्लिमों से माफ़ी मांगी और उत्तर में पंचायतों में मुस्लिम किसानों ने पूरी ताकत से हिस्सा लिया।
दुनिया का शायद एकमात्र ऐसा धर्म सिख धर्म है जिसकी पवित्र पुस्तक भारतीय कविता का अपूर्व संग्रह है। क्या गजब का धर्म है कि बनारस के संत रैदास को अपना बना लिया और इस तरह कि पंजाब से बनारस आनेवाली ट्रेन का नाम रैदास की यूटोपिया के आधार पर ‘बेगमपुर’ एक्सप्रेस हो गया। खुद गुरु ग्रंथ साहिब भी उस जमाने के लगभग सभी कवियों की कविता को एकत्र करने की कोशिश से उपजा है। कुछ बाद में बजरंग बिहारी तिवारी की नवारुण से छपी पुस्तिका ‘भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन’ से पता चला कि गुरु नानक और उनके सभी समकालीन कवियों को इस किसान आंदोलन की मार्फ़त नये तरीके से देखा समझा जा सकता है। संतों ने ‘मन’ को विवेक के अंकुश से काबू में रखने की सलाह दी थी। हमारा शासक तो ‘मन’ को काबू करने की कौन कहे, मनमानी करने पर आमादा है। धर्म की ऐसी सामाजिक भूमिका भी धर्म के बारे में मार्क्स के इस कथन को पुष्ट करती लगी कि वह इस दुनिया की हृदयहीन परिस्थितियों का हृदय है, पीड़ित आत्मा की कराह है।
पुराने संस्कृत ग्रंथों में आत्मा के अन्नमय होने की बात सुनी थी और महसूस किया था कि ॠषियों को अपने व्यावहारिक अनुभव से मालूम था कि चेतना के मूल में अन्न ही है। उन्हें पता था कि आत्मा को जागृत रखने की ऊर्जा का स्रोत अन्नमय भोज्य सामग्री है। यदि कोई अन्न की अवहेलना करता है तो वह आत्मा की भी अवहेलना करता है। भारत का किसान आधुनिक काल में भी चर्चा का विषय रहा है। गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को आलसी कहे जाने का विरोध करते हुए बताया है कि खेतों में सोनेवाले किसान बहुत हिम्मती होते हैं। हिंसक जानवरों और प्रकृति की मार का मुकाबला करते हुए खेतों से अन्न पैदा करने वाले इस किसान को वे भारत की मूल आत्मा का आधार समझते थे। जिस पूंजीवादी विकास के प्रतिनिधि के रूप में अंग्रेज इस देश में आये थे उसने इंग्लैंड में भी खेती को तबाह करने के बाद कारखानों के लिए पगारजीवी मजदूर पाये थे। स्वाभाविक था कि वे भारत की खेती में हस्तक्षेप करें। इस हस्तक्षेप का सीधा संबंध उपनिवेशवाद से था। यह ऐसी विश्व व्यवस्था थी जिसमें उपनिवेशित देशों के अर्थतंत्र को उपनिवेशक के हितों के मुताबिक बदला जाना था। इस काम के मकसद के सिलसिले में उत्सा पटनायक और प्रभात पटनायक ने गहराई से शोध किया है। ध्यान देने की बात है कि इससे पैदा होने वाले विक्षोभ को नियंत्रित करने के लिए ही वे तमाम कानून अंग्रेजों ने बनाये थे जिनके पुनरुज्जीवन के चलते देश लोकतंत्र के सूचकांक में निरंतर नीचे को खिसक रहा है।
इस आंदोलन ने भारत में औपनिवेशिक शासन की ओर से किये गये हस्तक्षेप को खेती किसानी के नजरिये से देखने की प्रेरणा दी है। तबसे भारत की खेती को अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के हितों के मुताबिक ढालने की कोशिश और उस कोशिश के बहादुराना प्रतिरोध का समूचा इतिहास प्रत्यक्ष हो गया है। इसके इर्दगिर्द ही स्वाधीनता आंदोलन की क्रांतिकारी विरासत को भी पहचाना जा रहा है। कहना न होगा कि आजादी के उस आंदोलन ने साहित्य के भीतर खेती किसानी और इस काम में लगे किसानों को नायक के रूप में स्थापित कर दिया। इसमें हिंदी और उर्दू एक साथ रहे। याद करिये कि इकबाल ने कहा कि ‘जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी, उस खेत के हर खोश-ए-गंदुम को जला दो’। उस जमाने के प्रेमचंद को किसान जीवन की कहानी और उसकी लूट के विरोध के लिए ही जाना जाता है। उनकी ही परम्परा के लेखक नागार्जुन ने संस्कृत में कृषक शतकम लिखा। कहना न होगा कि औपनिवेशिक शासन की ओर से साम्राज्यी हितों के अनुरूप खेती के पुनर्गठन का विरोध स्वाधीनता की अंतर्धारा थी जिसके चलते समूचा आधुनिक भारतीय साहित्य किसान केंद्रित साहित्य बन गया।
जिन कानूनों का विरोध किसानों की ओर से हो रहा है उनके कानून बनने की समूची प्रक्रिया से जनता को ओझल कर देने के इस प्रयास का विरोध करने के क्रम में लोग सीख रहे हैं कि असल में कानून किस तरह बनना चाहिए। पहले से रायशुमारी की जो परम्परा चली आयी है उसका भी पता इस आंदोलन के दौरान ही चला है। जो प्रक्रिया पूरी नहीं की गयी थी उसे सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद किया जा रहा है इससे बड़े पैमाने पर कानून बनाने की संरचना के बारे में जन शिक्षण हो रहा है। इन कानूनों पर हुई बहस से समूचे देश को पता चला कि कुछ ऐसे मामलात हैं जिन पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को ही है। खेती भी ऐसा ही क्षेत्र है। कारण कि सभी राज्यों में खेती एक ही तरह की नहीं होती। केंद्र सरकार ने सीधे कानून बनाकर देश के संघीय ढांचे का उल्लंघन तो किया ही, इस नजर से ये कानून असंवैधानिक भी हैं। इस पहलू से दायर याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय ने तमाम याचिकाओं की तरह लम्बित रखा है।
वर्तमान आंदोलन के संदर्भ में गांधी के हिंद स्वराज के कुछ अंश देखना सही होगा। वे लिखते हैं ‘मेरे मन में हिंदुस्तान का अर्थ वे करोड़ों किसान हैं, जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं। राजा तो हथियार काम में लायेंगे ही। उनका वह रिवाज ही हो गया है।---किसान किसी के तलवार बल के बस न तो कभी हुए हैं, और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते; न किसी की तलवार से वे डरते हैं। वे मौत को हमेशा तकिया बनाकर सोनेवाली महान प्रजा हैं।’ इसी किताब में गांधी कानून के सवाल पर बड़ी मजेदार बहस करते हैं और बताते हैं कि अन्यायी कानून को मान लेना पाप और गुलामी है।
इस पूरे आंदोलन के दौरान सबसे बड़ी घटना गणतंत्र दिवस की परेड थी। इस मामले में आंदोलन ने सचमुच देश पर दावा ठोंक दिया है। आज सभी लोग यह बुनियादी बात समझ रहे हैं कि संविधान में संप्रभुता देश की जनता को सौंपी गयी है। शाहीन बाग के बाद इस आंदोलन ने देश की आजादी के आंदोलन के लगभग सभी प्रतीकों को शासकों के हाथों से छीनकर जनता को सौंप दिया है । परम्परा से गणतंत्र दिवस की परेड देश की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन होती है। बचपन में इसका एक पहलू स्कूली बच्चों का जुलूस हुआ करता था। टेलीविजन आने के बाद वैसे ही देशवासी निष्क्रिय दर्शकों में बदल चुके हैं। इसलिए घर बैठे राजपथ से गुजरते जुलूस को देखना ही नागरिकों का कर्तव्य रह गया था। जहां से यह जुलूस निकलता है वहां असल में भी नागरिक दर्शक ही होते हैं। शायद पहली ही बार जनगण ने अपने तंत्र में भागीदारी का सामूहिक दावा किया होगा। देखने के लिए टिकरी की परेड को गया तो सोचा कि जैसा माहौल है उसमें कम ही लोग मिलेंगे। सारी सड़कों पर आंख के सामने भारी बोल्डर लगाये जा रहे थे। इसके बावजूद अचरज की तरह हरियाणा या पंजाब से जुड़े सामान्य दिल्ली वासियों को उत्सव की तरह सड़क पर ट्रैक्टरों का स्वागत करते देखा। ऊपर आसमान से हवाई जहाज और हेलीकाप्टर गुजर रहे थे। साथ खड़े ओम बता रहे थे कि जयपुर सबसे नजदीक का वायुसेना का अड्डा है इसलिए वहीं से उड़कर ये राजपथ जा रहे हैं। एक क्षण को लगा कि जो पिता इस सड़क पर ट्रैक्टर चला रहा है बहुत सम्भव है उसका पायलट पुत्र आसमान में अपाचे हेलिकाप्टर संभाल रहा हो। बचपन में नेट नामक जंगी जहाज के बारे में सुना था। बाद में उसकी सही वर्तनी Gnat का पता चला। वे भी तीन की तीर जैसी कतार बनाकर उड़ रहे थे। वह राफेल भी नजर आया जिसका मुकदमा सत्ता के पक्ष में माकूल फैसला सुनाये जाने पर राज्यसभा में ले जाता है। इनमें ही वह विमान भी रहा होगा जो बादलों में छिपकर राडार को धोखा देता है क्योंकि उसकी केवल आवाज सुनायी दे रही थी। अद्भुत नजारा था। सरकार की डरावनी ताकत आसमान को गुंजा रही थी और सड़क पर ट्रैक्टरों का विराट जत्था जनता के स्वागत को स्वीकारता चला जा रहा था। खड़े थे हम टिकरी बार्डर से आनेवालों के स्वागत के लिए लेकिन पता चला उनका रास्ता बदल दिया गया है। ये तो ढांसा बार्डर से उमड़े चले आ रहे हैं। जुलूस का स्वागत घरों की छतों से महिलाएं फूल बरसाकर कर रही थीं। छोटे बच्चे, युवतियां और बूढ़े लोग इस कदर बालोचित उत्साह से भरे थे जैसे इस क्षण की पवित्रता उन्हें रूपांतरित कर देगी। इस व्यापक जन समर्थन को देखकर यकीन हो गया था कि उस दिन की दुर्घटना से लगा धक्का दो दिन से अधिक कायम न रहेगा।
लोकतंत्र के सिलसिले में बुनियादी मान्यताओं को फिर से जिंदा कर देने के अतिरिक्त इस आंदोलन ने अर्थशास्त्र की दुनिया में जिसे अर्थतंत्र का प्राथमिक क्षेत्र कहा जाता है उस किसानी को विचार की दुनिया में प्रमुखता दिलायी है। पत्रकारिता में इस आंदोलन ने ‘ट्राली टाइम्स’ जैसी पत्रिका के प्रकाशन के जरिये उस धारा की याद फिर से ताजा कर दी जिसकी परम्परा मार्क्स और गांधी तथा गणेश शंकर विद्यार्थी और आंबेडकर जैसे विचारकों के पत्रकारीय पहलू से जुड़ी है। उसमें आधी पत्रिका पंजाबी में और आधी हिंदी में होने से उस एकजुटता का पता चलता है जिसे वर्तमान शासक पार्टी लाख कोशिशों के बाद भी तोड़ नहीं पा रही है। इसके अतिरिक्त भी आंदोलनों और ज्ञान के आपसी रिश्तों की छानबीन के लिहाज से इस आंदोलन को याद रखा जाना चाहिए। संचार माध्यमों में सोशल मीडिया फिलहाल सबसे अधिक लोकप्रिय है। उसमें शुरू से ही पूंजी और श्रम के बीच जंग छिड़ी हुई है। सरकार की ओर से बार बार इंटरनेट को बाधित करने की कोशिश और आंदोलनकारियों की ओर से उसे वापस हासिल करने का जो नजारा था उसे संसाधनों पर अधिकार की क्लासिक लड़ाई के बतौर दर्ज किया जाना चाहिए।
इस ऐतिहासिक आंदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां भी बटोरीं। राष्ट्रवाद की सर्वव्यापी उपस्थिति के बावजूद ऐसे मंच रहे हैं जो केवल राष्ट्रों के समूह नहीं होते बल्कि उनके भीतर ऐसे क्षेत्रों से जुड़ी बातों पर सोच विचार होता है जिनका संबंध एकाधिक देशों से होता है। जीवन के तमाम ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें बहुतेरे देश मिलकर काम करते हैं। अंतरिक्ष किसी एक देश का इजारा नहीं है। किसी देश के हवाई जहाज के गुम होने पर भी सभी देश मिलकर उसकी खोज करते हैं। समुद्र में कुछ दूर तक तो पड़ोसी देश अपनी सीमा मानते हैं लेकिन उसके बाद का इलाका सबके लिए खुला होता है। इसी तरह पर्यावरण और धरती की पारिस्थितिकी का सवाल भी अंतर्राष्ट्रीय सहकार के बिना हल नहीं हो सकता। हम सभी जानते हैं कि इन जैसे मामलों के लिए अंतर्राष्ट्रीय करार और संस्थाओं का तंत्र होता है जो संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ ही काम करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहकार के इन औपचारिक सरकारी रूपों के अतिरिक्त जनता के बीच भी सहकार के तमाम रूप मौजूद होते हैं। इनके कारण भी दुनिया के किसी हिस्से में आयी आपदा में देशों की सरहदों के पार भी सहयोग किया जाता है। शिक्षा के केंद्रों का नाम विश्वविद्यालय होना बताता है कि ज्ञान भी अंतर्राष्ट्रीय सहकार का ही क्षेत्र है।
इसी तरह आंदोलनों में भी एक पारदेशीय सहकार होता है क्योंकि देश तो बाद में बने, मनुष्य पहले से मौजूद था और उसकी कुछ तकलीफें साझा होती हैं। वैश्वीकरण के बाद इस तरह का सहकार बढ़ता ही गया है। विश्व आर्थिक मंच के मुकाबिल विश्व सामाजिक मंच हाल की बात है। दोनों नामों के बीच का अंतर मनुष्य के बारे में विरोधी नजरियों का इजहार भी था। संकीर्ण राष्ट्रवाद इस सहकार पर तरह तरह की बंदिशें लगाने की चेष्टा करता है। मौजूदा किसान आंदोलन के दौरान कनाडा के राष्ट्रपति से लेकर ग्रेटा थनबर्ग तक इस अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के विभिन्न रूप देखने में आये। पश्चिम के कुछ लोकप्रिय कलाकारों के हस्तक्षेप ने सबको उस दुनिया से परिचित कराया जिसमें कलाकार की सामाजिक भूमिका हुआ करती है।
सबसे आगे बढ़कर इस आंदोलन ने लोगों के दिमाग में बनावटी (सिंथेटिक) पौराणिक स्मृतियों को बिठा देने की शासकीय कोशिशों के मुकाबले स्वाधीनता आंदोलन की ठोस ऐतिहासिक स्मृतियों को जगा दिया है। डेरा डाले लोगों से सामूहिकता का मनोविज्ञान भी समझने में आ रहा है। चालीस से अधिक संगठनों का सब समय समन्वय इतिहास में बहुत कम मौकों पर हुआ होगा। जिसे आंदोलन कहा जाता है वह कैसे उतार चढ़ाव से होकर गुजरता है इसकी शिक्षा भी नयी पीढ़ी के आंदोलनकारियों को प्रत्यक्ष मिल रही है। इस पीढ़ी का राजनीतीकरण जितनी तेजी से और जितनी कम उम्र में हो रहा है उसने युवाओं को उपभोक्ता मात्र बना देने की योजना को धक्का पहुंचाया है। सभी बार्डरों पर आंदोलनकारियों के साथ ही पुस्तकालय, सिनेमा और गायन का जो समां है उसने इस आंदोलन को जन शिक्षण की अद्भुत प्रयोगशाला में बदल दिया है। इस आंदोलन ने कम से कम यह तो साबित किया कि देश में एक कृषि मंत्री हैं और उनका नाम सबको याद रहेगा। किसानों ने सरकार के साथ पूरी वार्ता के दौरान लंगर से आया भोजन ही ग्रहण किया। इस पर जब एक सरकारी वार्ताकार ने कहा कि आप हमारा दिया खा नहीं रहे तो हम भी आपका दिया नहीं खायेंगे तो एक किसान प्रतिनिधि ने जो जवाब दिया वह किसान के आत्मविश्वास का परिचय देने के लिए बहुत है। हरियाणा के किसान प्रतिनिधि ने अत्यंत सहज भाव से बोला कि हमारा दिया नहीं खाओगे तो क्या घोड़े की लीद खाओगे!