26 नवम्बर को भारत के वर्तमान ऐतिहासिक किसान आन्दोलन को शुरू हुए एक वर्ष होने जा रहा है. पिछले वर्ष 26 नवम्बर 2020 को जब हम दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे, तो हम नहीं जानते थे कि हमें एक वर्ष तक दिल्ली की सीमाओं में सड़कों पर रहकर लड़ना पड़ेगा. परन्तु हां! हम इतना तो जरूर जानते थे कि हमारी लड़ाई इतनी छोटी भी नहीं है कि उसका समाधान जल्दी निकल आएगा. इस लिए दिल्ली की ओर मार्च करने वाले किसानों को इतना तो बता दिया गया था कि लड़ाई लम्बी चल सकती है, इसलिए अपनी ट्रालियों में एक माह का राशन, बर्तन, ईधन और बिस्तर साथ लेकर चलें. पर जैसा कि गुरु नानकदेव जी के 20 रुपए का पहला लंगर आज लगभग साढे पांच सौ वर्ष तक भी पूरी दुनिया के पीड़ितों, भूखों को खिलाने के बाद भी दुनिया भर में चल रहा है, वैसे ही किसानों के इस आन्दोलन में लाया गया एक माह के राशन का लंगर लाखों लोगों को खिलाने के बाद भी अनवरत जारी है. किसान आन्दोलन के मोर्चों को जमाने में किसानों की संकल्प शक्ति के साथ ही इन लंगरों का बड़ा योगदान रहा है.
इस आन्दोलन को धनी किसानों का आन्दोलन साबित करने की बड़ी कोशिशें हुई. पर इसमें शहीद हुए लगभग सात सौ किसानों की आर्थिक पृष्ठिभूमि का हाल में हुआ अध्ययन बताता है कि उनके पास औसतन ढाई एकड़ जमीन ही थी. यही नहीं इस आन्दोलन में शहादत देने वालों में आदिवासी, खेत मजदूर और महिलाएं भी पीछे नहीं हैं. 27 जनवरी 2021 को टीकरी मोर्चे से लौटते समय अंबाबारी, जिला नंदूरबाड़, महाराष्ट्र से लोक मोर्चा की नेता आदिवासी किसान कार्यकर्ता 56 वर्षीय सीताबाई रामदास तड़वी की ठण्ड लगने से लौटते समय जयपुर में मृत्यु हुई. वो 26 जनवरी के कार्यक्रम के लिए अपने क्षेत्र से आदिवासियों का जत्था लेकर दिल्ली आई थी. 28 दिसंबर 2020 को पंजाब के मानसा शहर के वार्ड नम्बर 7 की रहनी वाली मजदूर मुक्ति मोर्चा की नेता मलकीत कौर की टीकरी मोर्चे से लौटते समय हरियाणा के फतेहाबाद में एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई. 17 नवम्बर 2021 को टीकरी मोर्चे पर एक साल से डटे दलित मजदूर निहंग सिंह हरचरण सिंह खालसा, गाँव हाकम वाला, बुढलाडा, जिला मानसा पंजाब की मृत्यु हो गई. लगभग डेढ़ माह पूर्व टीकरी बार्डर पर ही एक ट्रक ने उन्हें पीछे से टक्कर मार दी थी. गाँव खीबा दयालु वाला जिला मानसा पंजाब की तीन महिला आन्दोलनकारियों को टीकरी बार्डर पर 28 अक्टूबर 2021 को एक ट्रक ने कुचलकर मौत की नीद सुला दिया था. ऐसे दर्जनों और उदाहरण इन शहादतों की सूची में शामिल हैं.
यह आन्दोलन एक साल से टिका है और लगभग सात सौ शहादतों के बाद भी किसानों के अन्दर हर रोज लड़ने के लिए नया उत्साह पैदा हो रहा है. इसके कारणों को जानने के लिए इस आन्दोलन के दो चर्चित चेहरों के भाषणों के इन अंशों को आप जरूर पढ़ें! एक दिन किसान महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पंजाब के जुझारू किसान नेता रुलदू सिंह मानसा (चर्चित नाम खुंडे वाला बापू) ने टीकरी बार्डर के मोर्चे से अपने संबोधन में किसानों से कहा, “किसान वीरो! हम इस मोर्चे को फतह करके ही जाएंगे. मैंने पंजाब में किसानों से कह दिया है कि फूलों के हार तैयार रखें, अगर हम जीत के आए तो हार हमारे गले में डाल देना, अगर शहीद हो कर आए तो हार हमारे शव पर डाल देना. हम सिर्फ इन्हीं दो स्थितियों में लौटेंगे. इसलिए याद रखो! किसी युद्ध को जीतने के लिए सेना के पास दो चीजें जरूरी होनी चाहिए, पहला खाने को राशन, जो हमारे पास जरूरत से ज्यादा है. दूसरा हथियार, हमारा हथियार इस आन्दोलन में शामिल पांच सौ से ज्यादा किसान संगठनों के झंडे हैं. इस लिए चिंता मत करो! जीत तुम्हारी ही होगी!”
एक और दिन सिंघू बार्डर के मंच से बीकेयू नेता व इस आन्दोलन के सबसे वरिष्ठ नेता बलबीर सिंह राजोवाल ने अपने संबोधन में किसानों से कहा “साथियों! मैं आंदोलनों में इतने वर्षों से सक्रिय हूँ. मैंने आज तक कभी भी कम्युनिस्टों के साथ काम नहीं किया. कम्युनिस्टों के बारे में मैं सोचता था न जाने वे कैसे लोग होंगे, कैसे जीव होंगे. पर इस आन्दोलन में मुझे पहली बार कम्युनिस्टों के साथ काम करने का मौक़ा मिला है. सच कहूँ तो मुझे इनके साथ काम करने में बड़ा स्वाद आ रहा है. ये जब मीटिंग में होते हैं तो बाल की खाल उतार लेते है. पर जब एक बार कोई सामूहिक फैसला हो जाता है तो सब मुस्कराते हुए बाहर आते हैं. मैं कह सकता हूँ कि इस आन्दोलन ने जो नेतृत्व तैयार किया है वह आने वाले समय में पंजाब को बहुत कुछ देने वाला है. यह नेतृत्व देश में भी बड़ा बदलाव लाने वाला है.”
इस किसान आन्दोलन ने एक वर्ष में सत्ता की तमाम साजिशों, भारी दमन और उकसावे की कार्यवाहियों का अडिग रहकर धैर्य पूर्वक जवाब दिया है. यह आन्दोलन भारत जैसे विविधता समेटे देश में लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को चलाने की बड़ी सीख दे रहा है. अलग-अलग राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पृष्ठिभूमि के पांच सौ से ज्यादा संगठनों और इन संगठनों के कई समूहों/समन्वयों को लेकर बने संयुक्त किसान मोर्चा का एक साल से सफल संचालन इसका जीता जागता उदाहरण है. इसमें बड़े फार्मर हैं तो बड़ी संख्या मध्यम व सीमांत किसानों की भी है. खेत मजदूरों के संगठन और आदिवासियों के संगठन भी हैं. अपने कार्यक्षेत्र में ये संगठन अब तक कई बार एक दूसरे के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हितों के लिए आपसी टकराव में भी रहते हैं. पर भारत की खेती-किसानी और ग़रीबों की खाद्य सुरक्षा पर हो रहे कारपोरेट हमलों के खिलाफ वे इस आन्दोलन में एक दूसरे के साथ मजबूती के साथ खड़े हैं. यहाँ बहसें भी हैं तथा आन्दोलन के मुद्दों से कुछ नेताओं के अन्दर आ रहे भटकाओं पर उन्हें सजा देने और इस सजा को सहर्ष स्वीकार करने की परम्परा भी विकसित हुई है.
आज जब इस आन्दोलन को एक वर्ष पूरा होने जा रहा है, तो मैं कह सकता हूँ कि इस आन्दोलन की चालक शक्ति स्वयं भारत के लडाकू किसान हैं. इस आन्दोलन का निशाना सिर्फ कारपोरेट परस्त सरकार ही नहीं है, बल्कि किसानों ने सीधे लुटेरे बड़े कारपोरेट और विश्व व्यापार संगठन को भी अपने निशाने पर लिया है. देश के किसानों ने जब भी आन्दोलन के लम्बा होने और सरकार की इस आन्दोलन के प्रति उदासीनता के कारण आन्दोलन के नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें देखी, तो मोर्चों पर और भी बड़ी भागीदारी और आन्दोलन के देशव्यापी विस्तार के साथ अपने नेतृत्व का हौसला बढाया. इस आन्दोलन में पहली बार भारत के किसानों ने मजदूरों के एजेंडे और मजदूरों ने किसानों के एजेंडे को अपने आन्दोलन में जगह देकर किसान मजदूर एकता की मजबूत बुनियाद डाल दी है.
यह बात मजबूती से कही जा सकती है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों के सिंघू और टीकरी बार्डर मोर्चों ने इस आन्दोलन की रीढ़ का काम किया है. पर आन्दोलन के इस एक वर्ष के दौरान 27
जनवरी 2021 को गाजीपुर बार्डर और 3 अक्टूबर 2021 को लखीमपुर खीरी में सत्ता की साजिशों से इस आन्दोलन पर किये गए दो बड़े हमलों का मजबूत प्रतिकार कर इसे बचाए रखने में उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड के किसानों के पड़ाव गाजीपुर मोर्चे की भी बड़ी भूमिका रही है. जिन किसानों ने इसमें हिस्सा लिया है, समाज के तमाम तबकों के जिन लोगों ने इसे नजदीक से देखा और महशूश किया है, वे सहज ही आजादी की लड़ाई में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ 90 वर्षों तक अनवरत लड़ते रहे भारत के किसानों, आदिवासियों और मजदूरों की संकल्प शक्ति से परिचित हो गए गए होंगे.
आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते देखा, तो मुझे लगा कि शायद आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी का देश के किसानों की उसी संकल्प शक्ति से परिचय हुआ होगा, जिसने उनके घमंड को चकनाचूर कर उन्हें एक वर्ष से आंदोलनरत किसानों की आवाज की तरफ ध्यान देने को मजबूर किया होगा.