माइ लॉर्ड! यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की गरिमा के अनुकूल नहीं है!

माई लॉर्ड! यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की गरिमा के अनुकूल नहीं है!


पुरुषोत्तम शर्मा


प्रवासी मजदूरों पर सुप्रीम कोर्ट का कल का आदेश केंद्र सरकार को जिम्मेदारी से मुक्त कर क्लीन चिट देने की कवायद के सिवाय और कुछ नहीं है। इसी लिए इस फैसले को देश के नागरिको ने गम्भीरता से नहीं लिया।


अचानक हुए लॉक डाउन के कारण एक्सीडेंट, भूख और ट्रेन से मरे मजदूरों के लिए केंद्र की जिम्मेदारी तय करने और प्रत्येक मृतक के परिजनों को 20 लाख रुपये का मुआवजा देने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट चुप क्यों रहा?


अब जब ज्यादातर मजदूर लौट चुके हैं, तब उन्हें 15 दिन में पहुंचाने के आदेश का क्या मायने है?


जिन मजदूरों को भूखे पैदल या अपने खर्च पर लौटने को मजबूर किया गया, उन्हें मुआवजा देने का आदेश केंद्र सरकार को क्यों नहीं दिया गया?


भूखे लौटे मजदूरों के लिए रोजगार की योजना बनाने के आदेश का कोई औचित्य नहीं है। इसके बजाय उन्हें तीन माह तक आजीविका चलाने के लिए 7500 रुपया प्रति माह का भुगतान और मनरेगा में 200 दिन के काम की गारंटी और राज्यों को ज्यादा आर्थिक पैकेज का आदेश केंद्र को क्यों नहीं दिया गया?


घर लौटते मजदूरों पर दर्ज मुकदमे वापस लेने का आदेश तो कोर्ट ने दिया, पर उन पर रास्ते में क्रूर दमन करने वाले अधिकारियों और पुलिस कर्मियों पर कार्यवाही का आदेश क्यों नहीं दिया?


पूरे देश में क्वारन्टीन सेंटरों की बदहाली को ठीक करने का आदेश क्यों नहीं दिया गया।


आयकर से बाहर के दायरे के लोगों का निशुल्क कोरोना टेस्ट व निशुल्क इलाज का आदेश, तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर भारी निवेश कर अस्पतालों व जांच केंद्रों को बढ़ाने का आदेश क्यों नहीं दिया गया?


जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट इन सवालों पर ध्यान देता तो केंद्र की मोदी सरकार कठघरे में होती। इन सवालों से बचने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट ने इन पीड़ित मजदूरों को न्याय दिलाने की याचिकाओं को बिना विचारे रद्द कर दिया था।


इस लिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 'सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे' की नीति पर चलते हुए प्रवासी मजदूरों से जुड़े सभी महत्वपूर्ण मुद्दों से कन्नी काट कर सारी जिम्मेदारी राज्यों के सिर डाल दी।


कुल मिलाकर कहा जाए तो इस स्वत:संज्ञान याचिका का समय और निर्णय केंद्र की मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही को ढंकने और उसे हर जिम्मेदारी से मुक्त कराने की सोची समझी रणनीति का हिस्सा है।


यह सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा के अनुकूल नहीं है।